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• Sat, 20 Mar 2021 2:39 pm IST


मौत से दो-दो हाथ का फैसला


आज से दस साल पहले जमीन से करीब एक किलोमीटर नीचे भूचाल सा आया था। पत्थर, मिट्टी और रेत का सैलाब अचानक ऐसे उमड़ा कि जान बचाकर भागने के अलावा कोई चारा न था। भयावह आवाज के साथ मिट्टी और गर्द की बारिश झेलते लोग भागे जरूर, लेकिन किधर भागते? रह-रहकर चट्टानें टूटतीं और कतरा-कतरा बरसतीं। जो जगह बची थी, उसके भी मटियामेट होने का खतरा था। अंधेरा बहुत घना था। सिर पर हेलमेट में लगी टॉर्च की रोशनी में सबके लटके चेहरे सिर्फ हताशा बयान कर रहे थे। कभी न रोने वाले रो रहे थे। कुछ देर सब इधर-उधर भागते रहे, बचाव में शोर मचाते रहे, लेकिन कुछ देर में अनुमान लग गया कि हादसा बहुत बड़ा है और बचना शायद नामुमकिन। किसी ने सोचा न था कि तांबा-सोने की गहरी खदान में सब कुछ ऐसे खो जाएगा। रह-रहकर परिवार की याद रुलाती थी। मां, पिता, पत्नी, बच्चे, भाई, बहन से अब कभी मिलना न होगा। यहां कैसे बचेंगे, कौन बचाएगा? चीली में हर साल खदानों में तीस-चालीस लोग मरते हैं। खदान ठेकेदारों को खनिकों की ज्यादा परवाह नहीं। और यह तो बहुत गहरी घुमावदार खदान है, करीब 700 से 1000 मीटर नीचे कहीं जिंदगी फंस गई है। वह ऐसी जगह नहीं थी, जहां पल भर चैन आए। न वह ऐसा समय था, जिसके पलटने की गुंजाइश लगे। ऐसे त्रासद समय में खनिकों के एक प्रभारी लुईस उरुजा सामने आए। उन्होंने तत्काल हालात का अंदाजा लगाकर फरमान सुनाया, सब लोग एकत्र हो जाओ। मेरी आवाज सुनो और मेरी ओर आओ। पहले यह जानना है कि हम कितने लोग हैं, हमारे पास जीने-खाने के लिए कितना है? हमें क्या करना है और क्या नहीं? लुईस की आवाज सबको एक जगह ले आई, लेकिन सबके मन अलग-अलग भाग रहे थे। एक खनिक ने हताशा में कहा, ‘अब कोई नहीं बचेगा। खदान ठेकेदार हमें नहीं खोजने वाला और अगर कोशिश भी की, तो हम जहां हैं, वहां पहुंचने में शायद सौ साल लग जाएंगे। अब हमारी कब्र यहीं खुदनी है।’खनिकों के बीच मातम और गहरा गया, लेकिन तब भी लुईस उरुजा ने हिम्मत से काम लिया, ‘हताशा अपनी जगह है, लेकिन हमें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना है। हम 33 साथी जरूर बचेंगे। हमें खोजकर बचाया जाएगा। ऊपर हमारे परिवार वाले हैं। वे खदान मालिक और सरकार को चैन से नहीं बैठने देंगे। हमें बस जिंदा रहना है। जो होना है, होगा, लेकिन अभी सबसे जरूरी है कि हम खुद को अधिकतम दिनों तक बचाने की कोशिश करें और बचने की राह खोजते रहें।’ 
सारे खनिक इस बात से सहमत नहीं थे, लेकिन लुईस ने तय कर दिया था कि कोई भी फैसला बहुमत से होगा और सबको मानना पड़ेगा। ‘आपको बस सच बोलना है और लोकतंत्र में विश्वास करना है। हर फैसला वोट से होगा। हम 33 साथी हैं, मतलब 17 की संख्या बहुमत है। यहां जमीन के नीचे अंधकार में हमें लोकतंत्र ही जिंदा रख सकता है।’हताशा के उन लम्हों में लुईस देवदूत जैसे थे। उन्होंने सारा भोजन एकत्र करवा लिया और खाने पर राशनिंग की व्यवस्था लागू कर दी। चौबीस घंटे में बमुश्किल चम्मच भर टुना (मछली) खाने को मिलती थी और आधा ग्लास दूध। वैसे तो महज तीन दिन का भोजन बचा था, लेकिन किसी तरह से उसे अधिकतम  दिनों तक चलाना था। पानी वही पीना था, जो गंदा था और रिसकर आ रहा था। तीन दिन बाद खदान में फिर धमाका हुआ था और सबके दिल दहलने लगे थे। फिर कहीं खदान धसकी होगी, बाहर निकलने का रास्ता शायद और जाम  हो गया होगा। सब मौत का इंतजार कर रहे थे। शरीर ने खुद को खाना शुरू कर दिया था। एक-दूसरे से ही डर लगने लगा था। मौत के साए में एक-एक कर 16 दिन यूं ही बीत गए और 17वें दिन खदान की उस बंद गुफा में ड्रिलिंग मशीन की घरघराहट ने दस्तक दी। श्रमिकों का रोम-रोम हर्षित हो गया। लुईस ने ड्रिलिंग से गुफा में घुसी पाइप पर लाल रंग से निशान बनवा दिया। पाइप को जब ऊपर बचाव दल ने खींचा, तब जमीन के नीचे खनिकों के जिंदा होने के संकेत मिले। फिर ड्रिलिंग पाइप को नीचे भेजा गया, जिस पर बांधकर श्रमिकों ने संदेश दिया कि हम 33 सकुशल हैं, बचाव का इंतजार कर रहे हैं। ड्रिलिंग पाइप के जरिए ही श्रमिकों तक खाने-पीने की चीजें पहुंचने लगीं। कुल 69 दिन बाद खनिकों को एक-एक कर ऊपर लाया जा सका। बाहर निकाले गए आखिरी खनिक दृढ़ता और योजना की मिसाल लुईस उरुजा थे। जब उन्हें ऊपर लाया गया, तब उन्हें गले लगाते हुए चीली के राष्ट्रपति सेबेस्टियन पिनेरा ने डबडबाई आंखों के साथ कहा, ‘हम इसे कभी नहीं भूलेंगे।


सौजन्य - ज्ञानेश उपाध्याय