पटरंगा, गनौली, रुदौली, रोजागांव, अल्वना और जुबेरगंज – लखनऊ से अयोध्या की ओर बढ़ते हुए इन नामों से वास्ता पड़ता है। रोजागांव से अयोध्या जिले की सीमा शुरू हो जाती है, जबकि जुबेरगंज में बहुत बड़ा बाजार है पशुओं का। इसी तरह रुदौली घर है मशहूर शायर असरारुल हक मजाज का। ‘कुछ तुम्हारी निगाह काफिर थी, कुछ मुझे भी खराब होना था’ कहने वाले मजाज साहब का आज की पीढ़ी के लिए परिचय यह कि वह मामा थे जावेद अख्तर के।
हालांकि रास्तों पर केवल नाम मिलते हैं, इतनी डीटेलिंग नहीं। लेकिन, जो नाम मिलते हैं, उन्हीं से होती है इन जगहों के बारे में जानने की शुरुआत। सड़क किनारे लगे बोर्ड केवल भूगोल बताने के लिए नहीं होते। इनका इतिहास भी होता है, बशर्ते कोई जानना चाहे। सफर पर गाड़ी की खिड़की से बाहर देखते हुए इन बोर्ड को पढ़ने में एक अलग ही आनंद है।
अगर रास्ता देखा-भाला है, कई बार गुजर चुके हैं उससे तो एक बोर्ड को देखने के बाद ही पता चल जाता है कि अगले बोर्ड पर क्या लिखा होगा। लेकिन, जब रास्ता अनजान हो, तलाश हो किसी मंजिल की तो सड़क किनारे के हर बोर्ड पर नजरें चौंक पड़ती हैं कि कहीं यही तो नहीं। कुछ बोर्ड चौंका देते हैं, कुछ हंसा देते हैं। सरकी कुंडी नाम सुन किसके चेहरे पर मुस्कान न आएगी और ओडिशा में सिंगापुर देख कौन नहीं हैरत से भर जाएगा!
प्रवेश द्वार हैं ये बोर्ड अपने इलाके के, मेजबान हैं। इनके क्षेत्र में घुस रहे हैं, तो इनसे वास्ता पड़ना ही है। सामने यही आते हैं सबसे पहले। कई बार तो इन्हें देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि जिनके विजिटिंग कार्ड बने ये बैठे हुए हैं, वह है कैसा। कई बोर्ड शर्मीले होते हैं बहुत। फुटपाथ या डिवाइडर पर, झाड़ियों की ओट में ऐसे छिपे होते हैं कि देखना मुश्किल हो जाता है। जबकि कुछ इतने मुखर होते हैं कि दूर से ही ऐलान करने लगते हैं अपने होने का।
लेकिन, हर बोर्ड बात करने की एक कोशिश जरूर करता है। उसके चेहरे पर जो लिखा है, उसे पढ़ने के साथ उसके भावों को समझिए, तो उसका सवाल है, ‘आपको जाना कहां है?’ आपका जवाब है अयोध्या। वह कहता है, ‘अभी तो रुदौली ही आया है। प्लीज आगे बढ़िए।’ एक अनुभवी बोर्ड को परख होती है इंसानों की। जब कोई थका-मांदा यात्री चिढ़कर कहता है कि अरे, अभी तो गनौली ही आया, तो गनौली वाला बोर्ड खफा नहीं हो जाता। वह समझ जाता है कि बंदा परेशान है। वह इंतजार करता है उस यात्री का, जो उसे पढ़कर खुश हो जाए। लोहे का होता है बोर्ड, लेकिन दिल होता है उसका बिल्कुल खरा सोना।
आपके मन में सवाल उठ सकता है कि ऐसा कौन-सा बड़ा काम है बोर्ड का। बस खड़े ही तो रहना है। लेकिन, ऐसा नहीं है। हर दिन सामने से काफिला गुजरता है, हजारों लोग आते-जाते हैं। इनमें से कुछ ही होते हैं, जिन्हें इंट्रेस्ट होता है बोर्ड में। बाकी नजरअंदाज कर निकल जाते हैं। अपना काम करते हुए अवहेलना झेलना आसान नहीं। बहुत धैर्य और साहस चाहिए इसके लिए।
यादों से जुड़े होते हैं सड़क किनारे लगे बोर्ड। इनसे ही पहचान होती है रास्तों की। सड़क पूरी तैयारी करके बैठी है कि राह भुला दे, लेकिन बोर्ड हैं, जो मंजिल दिखाने के लिए तत्पर हैं। बिना किसी भेदभाव या लालच के मदद करने में सबसे आगे। इनसे तहजीब पता चलती है उस इलाके की। यह परंपरा दिखाते हैं वहां की।
गांवों में होड़ चलती होगी शहर बनने की और शहरों में होड़ लगती होगी आगे निकलने की, लेकिन इनके बोर्ड के बीच दोस्ती रहती है पूरी। हर बोर्ड अपने साथ यह भी संकेत दे देता है कि दूसरे पर क्या लिखा होगा। इतना सब पढ़ने के बाद हो सकता है आपको लगे कि ये बोर्ड तो बड़े कठिन प्राणी हैं! जैसा दिखते हैं, वैसे हैं नहीं! पर थोड़ा ठहर जाइए। ये तो बहुत ही सरल होते हैं। इनको जानना है, तो एक बार जब ये दिखें, तो रफ्तार थोड़ी धीमी कर लीजिएगा। अगर तेजी से निकले, तो इन्हें बुरा नहीं लगेगा क्योंकि इन्हें तो इसकी आदत है, लेकिन आप एक शानदार अनुभव से वंचित रह जाएंगे।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स