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• Mon, 12 Apr 2021 1:18 pm IST


अवधनामाः वह इश्क का बंदा था मजहब से नहीं वाकिफ


आरामतलब, औरतखोर और अय्याश। अवध में किसी से नवाब वाजिदअली शाह का नाम भर ले लीजिए, वह उन पर ऐसी कई तोहमतें जड़ देगा। और कहीं आपने कह दिया कि उसका रहन-सहन तो वाजिदअली शाह जैसा है, तो जताएगा कि आपने उसे कोई भद्दी-सी गाली दे दी है। निस्संदेह, वाजिदअली अवध के एकमात्र ऐसे नवाब हुए, जिन्हें बेगानों ने तो क्या अपनों ने भी ठीक से नहीं समझा। इसीलिए आज भी कोई यह बताता है कि अंग्रेजों ने सात फरवरी, 1856 को उन्हें अपदस्थ और ‘गिरफ्तार’ करने की कार्रवाई शुरू की तो वे नहीं ‘भाग’ सके, क्योंकि जूते पहनाने वाला सेवादार हाजिर ही नहीं था, तो कोई यह कि उन्होंने तीन सौ से ज्यादा शादियां कीं और तलाक देने में भी बेहद ‘दरियादिल’ रहे।
हां, उन्हें सूबे का लियोनार्डों दा विंची बताने वाले भी कम नहीं हैं। यह कहने वाले भी कि अपनी मानवीय कमजोरियों के साथ वे नवाबों की परंपरागत पहचान के ही बंदी बने रहते, तो न लखनऊ को वह नजाकत व नफासत नसीब होती, जो आगे चलकर उसकी पहचान बनी और न ही उसके अदब, तहजीब व कलाओं को बुलंदी हासिल होती। शतरंज, कथक और रहस का तो जाने क्या हाल होता। उस गंगा-जमुनी तहजीब का भी, जिससे जुड़े ‘हम इश्क के बंदे हैं मजहब से नहीं वाकिफ’ वाले उनके एलान की तारीफ से कोई इनकार नहीं करता।
फिर भी अंग्रेज रेजीडेंट कर्नल डब्ल्यू. एच. स्लीमन द्वारा नवंबर, 1849 से फरवरी, 1850 के बीच सूबे का दौरा कर झूठे-सच्चे तथ्यों के आधार पर गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी को भेजी गई रिपोर्ट में वाजिदअली की अक्षम व विलासी शासक की जो छवि गढ़ दी गई थी, वह बदलने को नहीं आती। दरअसल, अंग्रेजों ने वाजिदअली को 13 फरवरी, 1847 को अवध का ताज सिर पर धरते ही दो पाटों के बीच पीसना शुरू कर दिया था। ताज के दावेदार के तौर पर उनकी पहली पसंद वाजिदअली नहीं, उनके बड़े भाई मुस्तफाअली थे। अंग्रेज एक ओर वाजिदअली पर राजकाज को उपेक्षित रखकर आमोद-प्रमोद में डूबे रहने के आरोप लगाते थे और दूसरी ओर उन्हें उनका नवाबी सेना के पुनर्गठन के लिए उसकी नियमित परेडें कराना भी गवारा नहीं था। वे उनकी बनाई छोटी-सी जनानी फौज को भी सूबे को अंग्रेजों के प्रभाव से मुक्त कराने की ‘साजिश’ के तौर पर देखते थे।
इसके बाद के वर्षों में तो उन्होंने वाजिदअली को इतना तंग किया, जितना पहले शायद ही किसी और नवाब को किया हो। पहले उन्हें मनोनुकूल वजीर की सेवाओं से वंचित किया, फिर चकलेदारों और नवाबों की नियुक्ति के अधिकार से भी। वे जिसे दंड देना चाहते, अंग्रेज रेजीडेंट उसे आश्रय दे देता और जिसे वे नौकरी से निकालते, उसे नौकरी। कोई जमीनदार या तालुकेदार उनसे नाखुश होता, तो रेजीडेंट उसका सगा बन जाता। वाजिदअली के वफादारों की वह सरेआम बेइज्जती करता और जो अहलकार उनकी हुक्मउदूली करते, उनको सिर आंखों पर बिठाता। साफ कहें तो उन दिनों रेजीडेंट ने समानांतर सत्ता संचालित कर सूबे को आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से पंगु बना देने की शायद ही कोई कोशिश छोड़ी हो।
वाजिदअली की गिरफ्तारी के वक्त जूते पहनाने वाले सेवादार के हाजिर न होने की जो बात कही जाती है, उसमें भी कम से कम इतनी सच्चाई तो है कि तब तक उनके निकट वफादार सेवकों का ही नहीं, बेगमों व दरबारियों का भी अकाल हो चला था क्योंकि उनमें से ज्यादातर रेजीडेंट की समानांतर सत्ता के मोहताज हो गए थे।
उस दिन ‘दरो दीवार पै हसरत की नजर रखते’ हुए उन्होंने लखनऊ छोड़ा तो वह 21 सितंबर, 1887 को मटियाबुर्ज (कोलकाता) में अंतिम सांस लेने तक उनसे छूटा ही रहा। लेकिन लखनऊ में उनकी नायक व खलनायक की पहचानें आज भी टकराती रहती हैं। कोई यह जानकर खुश होता है कि शाह होने के बावजूद वे अपने महल में सुई पकड़े चिकन का बारीक काम करते भी दिख सकते थे और रदीफ-काफिया जोड़कर शायरी करते भी, तो किसी को कोफ्त होती है कि अंग्रेजों के दिए गमों को वे ज्यादातर ‘आनंदसभाओं’ और ‘परीखानों’ में ही क्यों गलत किया करते थे!
लेखकः कृष्ण प्रताप सिंह