डूंगरपुर। जिले के बोड़ीगामा गांव में रहने वाली 55 साल की गीता आज दूसरी महिलाओं के लिए एक बड़ा उदाहरण बन गई हैं। गीता ने पुश्तैनी हुनर के बल पर अपनी अलग पहचान बनाई है। गीता बिलकुल भी पढ़ी लिखी नहीं हैं लेकिन आज वह अपने पैरों पर खड़ी हैं और अकेले दम पर अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रही हैं। दरअसल, गीता को उनके पति ने 30 साल पहले छोड़ दिया था। उस वक्त गीता की एक साल की बेटी थी। इस मुश्किल दौर ने भी गीता ने हार नहीं मानी और अपने पिता से सीखे तीर कमान बनाने के हुनर को अपने जीवन यापन का जरिया बनाया। अब गीता के तीर कमान राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात के मेलों में बिकते हैं और इससे वह अच्छी खासी कमाई कर लेती हैं।
जब 30 साल पहले गीता को उनकी एक साल की बेटी भावना के साथ पति ने घर से निकाला तो उन्हें तो समझ ही नहीं आया कि वह क्या करें। फिर कुछ समय बाद गीता ने घर-घर जाकर सब्जी बेचने का काम किया, लेकिन, उससे गुज़ारा करना मुश्किल हो रहा था। इस पर गीता के पिता लालजी ने उन्हें तीर कमान बनाकर बेचने को कहा।दरअसल गीता बचपन में अपने पिता लालाजी को तीर कमान बनाते हुए देखती थी जिसे उन्हें अंदाजा था कि तीर कमान बनता कैसे है। पिता की सलाह मानकर गीता ने तीर कमान बनाकर आसपास के इलाक़े बेचने शुरू कर दिया। इससे उन्हें अच्छी आमदनी होने लगी। बाद में गीता गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश में लगने वाले मेलों में भी दुकान लगाकर तीर कमान बेंचने लगीं। आज गीता अपने इस काम के जरिये सालाना 2 लाख से 3 लाख रुपए कमा लेती हैं।
गीता 200 से लेकर 2500 रुपये तक तीर-कमान बनाकर बेचती हैं। वे तीर कमान बनाने के लिए आसपास के इलाक़े से बांस की लड़की, मोर के पंख आदि एकत्रित करती हैं। गीता छोटे बच्चों से लेकर खिलाड़ियों तक के तीर कमान बनाती हैं। गीता बताती हैं आदिवासी इलाक़े में तीरंदाज़ी के मुख्य खेल है।आदिवासी इलाकों में हर घर में तीर कमान मिल जाएगा। यही वजह है कि उनके तीर कमान की बाज़ार में काफी मांग है और उनके तीर कमान आसानी से बिक जाते हैं। गीता ने तीर कमान बेचकर अपनी बेटी भावना की शादी और पढ़ाई दोनों करवा दी और अपना घर भी बनवा लिया है।