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• Sat, 27 Mar 2021 3:22 pm IST


जब 17 विधायकों से सीएम बने घोष बाबू


ऐसा नहीं है कि बंगाल का सत्ता संग्राम पहली बार दिलचस्प मोड़ पर है। अतीत पर नजर डालें तो मिलता है कि वहां पहले भी सत्ता के लिए बेहद रोमांचकारी मुकाबले होते रहे हैं, और कहा तो यह भी जाता है कि सरकार बनाने के लिए राजनीतिक गठबंधनों की शुरुआत भी बंगाल से हुई थी। यह साठ के दशक की बात है। कांग्रेस के अंदर राज्य स्तर पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए स्थानीय नेतृत्व के बीच लड़ाई इस कदर बढ़ती गई कि 1 मई 1966 को कांग्रेस से अलग हुए पार्टी नेताओं ने बांग्ला कांग्रेस के नाम से अलग पार्टी बना ली और उसका नेतृत्व अजय मुखर्जी कर रहे थे। यह वही दौर था, जब वहां लगातार तीन टर्म से कांग्रेस की सरकार चल रही थी और 1967 में वहां नए चुनाव होने थे। बांग्ला कांग्रेस के नाम से जब वहां नई पार्टी का जन्म हुआ, तो सरगर्मी बढ़नी स्वाभाविक थी। उस वक्त राज्य में जो अलग-अलग पार्टियां थी, वे सब कांग्रेस को तो सत्ता से बेदखल करना चाहती थीं, लेकिन उनके अंदर यह आत्मविश्वास नहीं जम पा रहा था कि वे कांग्रेस को हरा भी पाएंगी। विपक्ष के बीच एक कोशिश यह हुई कि कांग्रेस के खिलाफ संपूर्ण विपक्ष एक होकर चुनाव लड़े, लेकिन यह कोशिश भी परवान नहीं चढ़ी। आखिरकार वहां विपक्ष के दो गठबंधन बने। अजय मुखर्जी के नेतृत्व में बांग्ला कांग्रेस, सीपीआई और फारवर्ड ब्लाक ने साझा तौर पर पीपुल्स यूनाइटेड लेफ्ट फ्रंट (पीयूएलएफ) और ज्योति बसु के नेतृत्व में सीपीएम, सोशलिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी, आरपीआई ने मिलकर यूनाइटेड लेफ्ट फ्रंट (यूएलएफ) बनाया। तब तक नए चुनावों की तारीख भी घोषित हो गई, और कांग्रेस के खिलाफ यही दो गठबंधन चुनाव के मैदान में उतरे।
बहुमत किसी को नहीं मिला उस वक्त राज्य में विधानसभा सीटों की संख्या 280 हुआ करती थी। इस लिहाज से सरकार बनाने के लिए पार्टियों को जो जादुई आंकड़ा छूना जरूरी होता था, वह था 141 का। लेकिन कांग्रेस के लगातार 15 साल से सत्ता में रहने से एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर और विपक्ष की जुटान को देखते हुए जिस तरह के नतीजों की उम्मीद की जा रही थी, वैसे आए नहीं। हां, यह जरूर हुआ कि कांग्रेस बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच सकी, लेकिन 127 सीटें पाकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। पीयूएलएफ के हिस्से 63 और यूएलएफ के हिस्से 58 सीटें आईं थी। 31 सीटों पर निर्दलीय जीतने में कामयाब हुए थे, और एक सीट भारतीय जनसंघ को मिली थी। कांग्रेस को सरकार बनाने से रोकने के लिए पीयूएलएफ और यूएलएफ ने हाथ मिलाने का फैसला किया। शुरुआत में इस बात को लेकर खींचतान चली कि मुख्यमंत्री कौन हो? ज्योति बसु का दावा मजबूत माना जा रहा था, लेकिन घटक दलों में उनके नाम पर आम राय नहीं बन पाई।
अंत में अजय मुखर्जी के नेतृत्व में साझा सरकार बनी, लेकिन कुछ शुरुआती महीनों के बाद ही ‘हनीमून पीरियड’ खत्म हो गया और यूएलएफ और पीयूलएलएफ में चिकचिक शुरू हो गई- खासतौर से बांग्ला कांग्रेस और सीपीएम के बीच। दोनों एक दूसरे के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर बयानबाजी करते दिखने लगे। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में इस काल को याद करते हुए एक जगह लिखा है कि रोज-रोज की चिकचिक और टांग खिंचाई से अजय मुखर्जी इस हद तक परेशान हो गए थे कि वे कांग्रेस में अपनी वापसी की भी सोचने लगे थे। लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं हो पाया, उधर सीपीएम को यह भनक जरूर लग गई कि अजय मुखर्जी कुछ भी कर सकते हैं। बांग्ला कांग्रेस के अलग होने के बाद उनके लिए सत्ता में बने रहने का प्रबंध कर पाना मुश्किल हो जाएगा, और ऐसे में भी कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो जाएगी। इस स्थिति से बचने के लिए सीपीएम ने सुलह का इरादा कर लिया और अजय मुखर्जी को भरोसा दिलाया कि उन्हें सरकार चलाने में पूरा सहयोग दिया जाएगा।
विधायकों की बगावत
अजय मुखर्जी सीपीएम की तरफ से दिलाए गए भरोसे पर अभी यकीन करने की कोशिश कर ही रहे थे कि उन्हें अपनी ही पार्टी में बगावत का सामना करना पड़ गया। प्रफुल्ल चंद्र घोष के नेतृत्व में 17 विधायकों ने राज्यपाल से मुलाकात कर अजय मुखर्जी सरकार से समर्थन वापसी का पत्र सौंप दिया। अजय मुखर्जी इस स्थिति का मुकाबला करने को तैयार ही नहीं थे। इस तरह की स्थितियों में जैसा होता है, वैसा ही घटनाक्रम उस वक्त भी दोहराया गया। चूंकि केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, ऐसे में उनके द्वारा मनोनीत राज्यपाल की मनोदशा को आसानी से समझा जा सकता है। अजय मुखर्जी से राज्यपाल ने फौरन बहुमत साबित करने को कहा। अजय मुखर्जी का कहना था कि वे बहुमत सदन में साबित करेंगे और सत्र आहूत करने की तारीख तय करने का अधिकार मंत्रिपरिषद को है। उधर कांग्रेस ने सरकार बनाने के लिए प्रफुल्ल चंद्र घोष को समर्थन देने का पत्र राज्यपाल को सौंप दिया। इसके बाद तो राज्यपाल को और ज्यादा मजबूती मिल गई, और उन्होंने अजय मुखर्जी सरकार को बर्खास्त कर दिया। फिर तो 17 विधायकों के नेता के रूप में प्रफुल्ल चंद्र घोष, कांग्रेस के समर्थन से राज्य के मुख्यमंत्री बन गए।
अजय मुखर्जी की सरकार महज दस महीने ही चल पाई थी, पर पिक्चर तो अभी बाकी थी। एक तरफ पीयूएलएफ ने सरकार बर्खास्तगी के विरोध में आंदोलन शुरू कर दिया, तो विधानसभा स्पीकर भी खुलकर नवगठित सरकार के विरोध में आ गए थे। घोष की तरफ से अपना बहुमत साबित करने के लिए जो सत्र आयोजित किया गया, जिसमें जमकर हंगामा हुआ। विधानसभा स्पीकर ने भी इस सरकार को मान्यता देने से मना कर दिया। उन्होंने बहुमत साबित करने की प्रक्रिया पूरी कराने से पहले ही सत्र को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया। एक तरह से यह नया संवैधानिक संकट खड़ा हो गया। इसी उथल-पुथल के कुछ ही दिनों के भीतर विधानसभा को भंग करने की नौबत आ गई। विधानसभा भंग होने के बाद करीब एक साल तक राष्ट्रपति शासन रहा। फरवरी 1969 में नए चुनाव हुए, लेकिन इस चुनाव में भी किसी को बहुमत नहीं मिला, और एक साल के अंदर ही वहां फिर से राष्ट्रपति शासन लग गया।
सौजन्य – नवभारत टाइम्स