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• Tue, 25 May 2021 9:08 pm IST


मनुष्य मरणधर्मा हैं, मगर मनुष्यता न मरे...


संसार के सारे धर्मावलंबियों में हिन्दू गज़ब हैं। इसलिए कि उनके पास जीवन से जुड़े गूढ़ प्रश्नों के उत्तर ही नहीं है बल्कि मृत्यु से जुड़ी अपनी अनूठी मान्यताएँ भी है। उन्होंने न केवल जीवन के विविध आयामों को परिभाषित किया है अपितु मृत्यु की भी अपूर्व अवधारणाएँ रची है। हिन्दू धर्मशास्त्रों में संहार के देवता महादेव शिव हैं तो मृत्यु के देवता यम। काल और अन्तक भी मृत्यु के साथ समीकृत हैं और देव होकर कहीं स्वतंत्र रूप से अंत के कारक हैं तो कहीं यम या मृत्यु से सम्बद्ध है। मृत्यु को छोड़ सभी पुरुष देवता हैं लेकिन मृत्यु नारी है। परम् सुंदरी, कोमलांगी, कमल नयना और भावुक ह्रदया। ठीक वैसी ही जैसी जगत् भर में नारी होती है। अधर्म से भयभीत रहने वाली और पापकर्म करने से कतराने वाली, मगर मृत्यु बिरली है। वह नारी है, देवी है किन्तु अनिच्छा से सही संहार में प्रवृत्त हुई है। सृष्टि के संतुलन के लिए उसने देव आज्ञा से यह कठोर कर्म स्वीकारा है। उसे दोष देना अनुचित है!

हिन्दू धर्मशास्त्रों में जगत् व जीवन की उत्पत्ति के देवता ब्रह्मा और संहार के देवता शिव अयोनिज हैं लेकिन मृत्यु एक देवी होकर ब्रह्मा से उत्पन्न हुई है। जगत् और शेष जीव-जंतुओं की भाँति मृत्यु का जन्म भी सकारण हुआ है। इसकी एक अद्भुत कथा महाभारत में प्राप्त है। यह कथा महाकाव्य के सातवें द्रोण पर्व के 52 वें से 54 वें अध्याय में है और फिर आगे 12वें शांतिपर्व के 256वें से 258वें अध्याय में पूर्व की अपेक्षा और सरसता से दोहराई गई है। 
जिस तरह हम बड़े-बड़े धनवानों, बलवानों, बुद्धिमानों की मृत्यु पर प्रायः प्रश्न से भर जाते हैं, वैसे ही महायुद्ध में 'सूरमाओं' के मर जाने पर युधिष्ठिर भी प्रश्नों से भरे थे। कभी जिनके बल और पराक्रम के आगे सारा संसार शीश झुकाता था, वे रणभूमि में मृत पड़े थे। उनकी मृत्यु को स्वीकारना कठिन था पर सत्य तो यह था कि वे 'मर चुके थे!' तब पितामह भीष्म के पास हितोपदेश ग्रहण करने पहुँचे युधिष्ठिर ने प्रश्न किया, 'तत्र मे संशयो जात: कुत: संज्ञा मृता इति।। कस्य मृत्यु: कुतो मृत्यु: केन मृत्युरिह प्रजा:।' अर्थात् हे पितामह ! मेरे मन में यह संदेह होता है कि इन्हें मृत नाम कैसे दिया गया? किसकी मृत्यु होती है? किससे मृत्यु होती है और किस कारण मृत्यु जगत् में सभी प्राणियों का अपहरण करती है?
ज्येष्ठ पांडव की जिज्ञासा के समाधान में शरशय्याशायी भीष्म ने एक प्राचीन आख्यान सुनाया। तद्अनुसार जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तब प्रारंभ काल में संहार की कोई व्यवस्था न होने पर जीव-जंतुओं की भीड़ के कारण सारी त्रिलोकी अवरुद्ध हो गई थी। इतनी कि 'निरुच्छवासमिवोन्नद्धं त्रैलोक्यमभवन्नृप।' अर्थात् लोगों का साँस लेना भी असम्भव-सा हो गया। मानो सबका दम घुटने लगा। तब ब्रह्माजी प्रजा कम करने को लेकर चिंतित तो हुए लेकिन बहुत विचार के बाद भी किसी निर्णय पर न पहुँच सके। रोषवश उनके नेत्रों सहित इंद्रियों से अग्नि प्रकट हुई और जगत् भर को जलाने लगी। उस समय भगवान शिव ने ब्रह्मा के पास जाकर उन्हें शांत किया तथा प्रार्थना की कि सारे जगत् को नष्ट करने के बजाय प्रजा के 'पुनरावर्तनशील' होने की व्यवस्था की जाए। अर्थात् लोग मरे पर फिर जन्म ले सकें।

प्रार्थना को सुन जब ब्रह्मा ने अपनी क्रोधाग्नि का उपसंहार किया तब उनकी इंद्रियों से एक मूर्तिमती नारी प्रकट हुई। उसके वस्त्र काले और लाल थे। वह दिव्य कुण्डलों से कान्तिमती तथा अलौकिक आभूषणों से विभूषित थी। यह 'मृत्यु' थी, जिसे ब्रह्मा ने रचा था और जन्म के साथ ही प्रजा के संहार की आज्ञा दे डाली थी। ब्रह्मा के रचे प्राणियों में यह पहली बार था जब किसी ने उनकी अवज्ञा की हों! कोमल ह्रदया मृत्यु ने कहा 'हे समस्त प्राणियों के अधीश्वर! मैं निरपराध लोगों के प्राण न ले सकूंगी। इसलिए कि जब मैं लोगों को मारूंगी तब वे मेरा अनिष्ट चिंतन करेंगे, इससे मैं डरती हूँ।' इस प्रकार अपने सृष्टा ब्रह्मा की उपेक्षा कर मृत्यु धेनुकाश्रम चली गई और तपस्या में लीन हो गई। तपस्या का उद्देश्य ब्रह्मा को प्रसन्न करना था ताकि वे संहार के बजाय और कोई कर्म दे दें। उस नारी की सुदीर्घ तपस्या से अंतत: ब्रह्मा प्रसन्न हुए मगर अपने पूर्व निर्णय पर अडिग थे। इसलिए कि मृत्यु का जन्म ही 'संहार' के लिए हुआ था। 
मृत्यु को उसकी तपस्या पर 'वर' देने को उपस्थित हुए ब्रह्मा जी ने कहा, 'मृत्यो! तुम मनुष्यों का संहार करो। तुम्हें इससे पाप न लगेगा। मैं और सभी देवता तुम्हारा शुभ चिन्तन करते रहेंगे। मनुष्यों का संहार ही तुम्हारा धर्म है क्योंकि इसी के निमित्त तुम्हारी उत्पत्ति हुई है। ब्रह्मा ने यह भी कहा कि 'मृत्यो! मैंने पहले तुम्हारे जिन अश्रु बिंदुओं को गिरते देखा और जिन्हें अपने हाथों में धारण कर लिया था, वे ही समय आने पर भयंकर रोग बनकर मनुष्यों को काल के गाल में डाल देंगे। सभी प्राणियों के अन्तकाल में तुम काम और क्रोध को एक साथ नियुक्त कर देना। इस प्रकार तुम्हें अप्रमेय धर्म की प्राप्ति होगी और तुम्हें पाप भी नहीं लगेगा, क्योंकि तुम्हारी चित्तवृत्ति राग-द्वेष से शून्य होकर सम है।'
कथा के अंत में महाभारतकार लिखते हैं, 'एवं मृत्युर्देवसृष्टा प्रजानां प्राप्ते काले संहरन्ती यथावत्। तस्याश्चैव व्याधयस्तेSश्रुपाता: प्राप्ते काले संहरन्तीह जन्तून्।।' अर्थात् ( जगत् के संतुलन के लिए ) इस प्रकार ब्रह्मा जी ने ही प्राणियों की मृत्यु रची है। वह ठीक समय आने पर यथावत् रूप से जीवों का संहार करती है। उसके आंसू ही मृत्यु काल प्राप्त होने पर रोग बनकर इस जगत् में प्राणियों का संहार करते हैं।
साधो! धर्मशास्त्रों की कथाएँ प्रतीकात्मक होती है। यह कथा संकेत है कि सृष्टि के संतुलन को बनाए रखने के लिए विधाता ने मृत्यु का सृजन किया है। वह निर्दोष है, केवल अपने धर्म का पालन करते हुए संहार का कर्म करती है। जब हमारे अपने मृत्यु को प्राप्त होते हैं तब स्वभावतः हम उसे कोसते है लेकिन याद रहे वह केवल अपना कर्तव्य निर्वहन करती है। जब कोई स्वजन 'असामयिक' कालधर्म को प्राप्त होता है तब और अधिक पीड़ा होती है पर सच तो यह है कि वह हमारी दृष्टि में 'असामयिक' होता है, काल की गणना में उसका 'समय' पूरा हो चुका होता है, तभी मृत्यु उसके प्राण का अपहरण कर जाती है। ध्यान रहे मनुष्य सदैव मरणधर्मा है, वह मरते आए हैं, मर रहे हैं और आगे भी मरते रहेंगे। हाँ, महामारी के कठिन काल में मनुष्यता अवश्य जीवित रहना चाहिए। मनुष्यता शेष रही तो मनुष्य फिर-फिर लौट आते रहेंगे। इसलिए कि 'पुनरावर्तनशील' होने के लिए ही मृत्यु का सृजन हुआ है!