कोरोना वैक्सीन कोविशील्ड के दो डोज के बीच अंतर को बढ़ाकर 12 से 16 सप्ताह किए जाने के फैसले पर सवाल-जवाब का सिलसिला थम नहीं रहा है। इस बीच, अस्पतालों और टीका केंद्रों पर दूसरा डोज लेने वालों की बेकरार भीड़ कम होने की उम्मीद भी तत्काल पूरी होती नहीं दिख रही। लोगों के भारी संख्या में अस्पताल पहुंचने और वहां से बैरंग लौटाए जाने की खबरें आई हैं। इनमें से कइयों को लगता है कि सरकार ने टीकों की कमी के चलते यह फैसला किया है।
हालांकि सरकार शुरू से कह रही है कि फैसला विशेषज्ञों की टीम ने ब्रिटेन में मिल रहे इनपुट के आधार पर किया है। इसका देश में टीकों की मौजूदा कमी से कोई लेना-देना नहीं है। उलझन इस बात से भी बढ़ी कि सरकार के दावे के बाद ब्रिटेन में वैक्सीन के दो डोजों के बीच का अंतर 12 हफ्ते से घटाकर 8 हफ्ते कर दिया गया। इसके बाद भारत सरकार ने कहा कि जो भी रिसर्च इनपुट आ रहे हैं, उन पर उसके विशेषज्ञों की टीम नजर बनाए हुए है। जब भी जरूरत होगी, फैसले में बदलाव किया जाएगा। लेकिन फिलहाल उसमें किसी परिवर्तन की जरूरत नहीं है।
यह सच भी है कि ब्रिटिश सरकार का ताजा फैसला भारत में विकसित हो रहे वायरस म्यूटेंट से बचाव की रणनीति का हिस्सा है। वह जल्द से जल्द अधिक से अधिक लोगों को दोनों डोज देकर उन्हें वैक्सीन के सुरक्षा घेरे में लाना चाहती है। इस रणनीति में कुछ गलत नहीं है, लेकिन इसके आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि दो डोजों के बीच अंतर घटाना वैक्सीन के प्रभाव को कम या ज्यादा करता है।
जानकारों के मुताबिक ब्रिटेन में भी ऐसा कोई डेटा नहीं है, जो यह बताता हो कि डोज का अंतर कम करने से वैक्सीन का असर बढ़ता है। बहरहाल, ये तर्क-वितर्क लोगों के बीच फैले असमंजस को कम नहीं कर पा रहे। हमारे विशेषज्ञों द्वारा रिसर्च इनपुट के आधार पर लिए गए फैसलों को पर इस तरह की स्थिति बनना ठीक नहीं है। इन फैसलों में इतनी पारदर्शिता होनी चाहिए कि किसी तरह के भ्रम या संदेह के लिए कोई गुंजाइश न रहे।
आखिर महामारी के खिलाफ यह जंग हम विज्ञान के सहारे ही लड़ने और जीतने वाले हैं और साइंस की गाड़ी पारदर्शिता, विश्वसनीयता के दो पहियों पर ही आगे बढ़ती है।