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DevBhoomi Insider Desk
• Tue, 8 Mar 2022 3:28 pm IST


लड़की हूं लड़ सकती हूं, पर कब तक?


कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने इस बार उत्तर प्रदेश चुनाव में नारा दिया- लड़की हूं लड़ सकती हूं। इसका असर भी दिखा। खासकर लड़कियों के बीच यह नारा काफी लोकप्रिय हुआ। इसके बाद प्रियंका गांधी ने इस नारे को हर चुनावी राज्य में इस्तेमाल किया। यूपी में तो महिला सुरक्षा चुनावी मुद्दा भी बना। यह सिर्फ कांग्रेस या विपक्ष का ही मुद्दा नहीं, बल्कि बीजेपी का भी मुद्दा रहा। जहां विपक्ष ने महिला सुरक्षा की स्थिति पर चिंता जताई, वहीं बीजेपी ने कहा कि उसके राज में महिला सुरक्षा की स्थिति बहुत बेहतर हुई। लेकिन जो सवाल अनुत्तरित है, वह यह कि राजनीतिक दलों को महिलाओं की जो यह याद आई है, क्या वह सिर्फ चुनाव तक सीमित है या चुनाव के बाद सरकार बनने पर भी इसकी याद रहेगी? वैसे महिलाओं को लेकर राजनीतिक दलों ने जो फिक्र दिखाई, उसमें उनकी जरूरत छिपी हुई है। पिछले कुछ सालों में सभी राजनीतिक दलों को यह बात समझ में आ गई है कि महिला मतदाता जीत-हार में अहम भूमिका निभा सकती हैं। इसलिए उनके लिए अलग-अलग लुभावने वादे भी किए जाने लगे।

बिहार में हुए विधानसभा चुनाव के वक्त भी विश्लेषकों ने यह लिखा कि नीतीश कुमार को महिला वोटरों का साथ मिल रहा है और उनकी जीत में महिला वोटर्स ने अहम भूमिका निभाई। नरेंद्र मोदी के नाम पर 2014 में बीजेपी को जो जीत मिली उसमें भी युवाओं के साथ ही महिला वोटर्स की भी भूमिका अहम मानी गई। लेकिन क्या महिलाओं की याद सिर्फ एक वोटर के तौर पर ही आनी चाहिए? इस सच को नकारा नहीं जा सकता है कि राजनीतिक दलों का महिलाओं को लेकर जो नजरिया है, वह सिर्फ वोटबैंक तक सीमित है। जब भी उन्हें राजनीति में भागीदारी देने की बात आती है, वे नजरें चुराते दिखने लगते हैं। राजनीतिक दलों का सबसे बड़ा रोना यही है कि महिलाओं में जीत की संभावना का प्रतिशत कम होता है। इस वजह से वे उन्हीं सीटों पर और उन्हीं महिला नेत्रियों को टिकट देना पसंद करते हैं, जिनमें जीत की संभावना ज्यादा होती है।इसमें कोई संदेह नहीं कि महिलाओं को जब तक राजनीति में पर्याप्त भागीदारी नहीं मिलेगी, तब तक उनके अधिकारों की लड़ाई पुरुषों के कंधों के सहारे लड़ी जाती रहेगी। वैसे महिलाओं के लिए एक अच्छी बात यह कही जा सकती है कि हाल के कुछ सालों में राजनीति में महिलाओं ने अपनी स्थिति पहले से कुछ मजबूत की है। हालांकि इसमें राजनीतिक दलों का योगदान कम और महिलाओं की इच्छाशक्ति का योगदान ज्यादा है। मौजूदा लोकसभा में 78 महिला सांसद हैं, जो कुल सांसदों का 14.39 फीसद हैं। यह महिला सांसदों का अब तक का सबसे बड़ा नंबर है। इससे पहले, यानी 2014 में लोकसभा में 65 महिला सांसद थीं- यानी कुल का 12.5 प्रतिशत। लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़कर 14 परसेंट से कुछ ज्यादा होना ही एक बड़ी उपलब्धि माना गया।

यह हाल तब है जब 1996 में ही महिलाओं को आरक्षण देने के लिए बिल लाया गया था। तब एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व में यूनाइटेड फ्रंट की सरकार महिला आरक्षण बिल लाई थी। यह बिल लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए था। वाजपेयी सरकार ने भी लोकसभा में इस बिल को पास कराने की कोशिश की, लेकिन यह हो नहीं सका। यूपीए सरकार फिर से 2008 में महिला आरक्षण बिल लेकर आई। मार्च 2010 में इसे राज्यसभा ने पास भी कर दिया लेकिन लोकसभा में यह पेंडिंग ही रहा। राजनीतिक दल अपने भाषणों में महिलाओं के सबसे बड़े हितैषी होने की बात करते हैं, मगर लोकसभा और विधानसभाओं में महिला आरक्षण के सवाल पर उन्हें कई पेंच नजर आने लगते हैं। वहीं महिला सांसद इस बिल के समर्थन की बात तो करती हैं, लेकिन पार्टी लाइन से ऊपर उठकर महिला नेता कभी एकजुट होकर इसके पक्ष में माहौल नहीं बनातीं। अगर वे मिलकर आवाज उठाएं तो सभी राजनीतिक दल भी सोचने को मजबूर होंगे। लेकिन मौजूदा राजनीति में अभी ऐसा कोई सीन देखने को नहीं मिल रहा है।

मजाक नहीं है भागीदारी
10 मार्च को जिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने हैं, अगर वहां की मौजूदा महिला विधायकों की संख्या और इस बार के चुनाव में महिला उम्मीदवारों का नंबर देखें तो स्थिति साफ दिखती है कि राजनीति में महिलाएं अब भी काफी पीछे हैं। उत्तर प्रदेश में 11 प्रतिशत महिला विधायक हैं। उत्तराखंड में महिला विधायकों की संख्या 9 फीसद, पंजाब में 6, गोवा में 5 और मणिपुर में महज 4 प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इस बार जितने भी उम्मीदवार मैदान में हैं, उनमें सिर्फ 12 फीसद महिलाएं हैं। उत्तराखंड में तो महिला उम्मीदवार 10 प्रतिशत ही हैं, जबकि उत्तराखंड ऐसा पहाड़ी राज्य है जहां की पूरी इकॉनमी ही महिलाओं के इर्द गिर्द घूमती है। गोवा में महिला उम्मीदवारों की संख्या 9 परसेंट है।

पंचायत में जब महिलाओं को आरक्षण दिया गया, उस वक्त भी कुछ लोग मजाक बनाते रहे कि महिलाएं तो सिर्फ नाम की ही सरपंच बन रही हैं और उनका काम उनकी पति या बेटे देख रहे हैं। काफी हद तक यह बात सही भी थी क्योंकि महिलाओं को पहले राजनीति और प्रशासनिक कामों के करीब आने ही नहीं दिया गया। फिर भी जहां उन्हें मौका मिला, उन्होंने सीखा और खुद कामकाज संभाला। मगर अभी भी कुछ जगहों पर महिला सरपंचों की जगह सरपंच पति देखने को मिलते हैं। केंद्र सरकार के महिला और बाल विकास मंत्रालय ने ही इस मसले पर कई बार वर्कशॉप कराई और स्टडी भी कराई है। स्टडी में यह बात सामने आई कि जहां पर महिलाएं दूसरी बार सरपंच बनी हैं, वहां उन्होंने न सिर्फ कामकाज संभाला है बल्कि वे बेहतर तरीके से फैसले भी ले रही हैं।

सौजन्य से :  नवभारत टाइम्स