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• Mon, 5 Aug 2024 11:28 am IST


रेलवे का खर्च बढ़ा, पर सेवाएं हुईं और खराब


रेल दुर्घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रहीं। हाल ही में झारखंड के सरायकेला-खरसावां जिले में हावड़ा-मुंबई मेल के 18 डब्बे पटरी से उतर गए, जिससे दो लोगों की मौत हुई और करीब 30 लोग घायल हो गए। जिस लाइन पर हावड़ा-मुंबई मेल बेपटरी हुई, उसके बगल वाली लाइन पर एक मालगाड़ी पहले से ही बेपटरी हुई पड़ी थी! विगत 18 जुलाई को उत्तर प्रदेश के गोंडा में चंडीगढ़-डिब्रूगढ़ एक्सप्रेस हादसे में चार लोग मारे गए थे, तो 17 जून को पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में कंचनजंघा एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुई थी, जिसमें 17 लोग मारे गए थे।

गैस सिलेंडर से आग : इस साल के शुरुआती छह महीनों में सात बड़े रेल हादसे हुए हैं, जिनमें से चार ट्रेनों के बेपटरी होने से हुए। पिछले साल के भी खासकर दो रेल हादसों को भूला नहीं जा सकता। ओडिशा के बालासोर में हुई तीन ट्रेनों की भीषण टक्कर में 290 लोग मारे गए थे और लगभग एक हजार लोग घायल हुए थे। पिछले ही वर्ष मदुरै के पास लखनऊ-रामेश्वरम भारत गौरव ट्रेन में आग लगने से हुआ हादसा तो चरम लापरवाही का नतीजा था। उस ट्रेन के अंदर तीर्थयात्री गैरकानूनी रूप से गैस सिलिंडर ले जा रहे थे। उस पर खाना बनाने के दौरान हादसा हुआ था।

सिग्नलिंग सिस्टम की खामी : रेल दुर्घटनाएं पहले भी होती रही हैं। सच यह है कि दुर्घटनाओं में पहले की तुलना में कमी आई है। पिछली लोकसभा में सरकार ने बताया था कि वर्ष 2014 से 2023 के बीच सालाना औसतन 72 रेल हादसे हुए, जबकि 2004 से 2014 के बीच सालाना औसतन 171 रेल हादसे होते थे। हाल के वर्षों में रेलवे की सुरक्षा और पटरियों के सुधार और मरम्मत पर खर्च बढ़ा है। मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग खत्म करने और मालगाड़ियों के लिए अलग से डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर बनाए जाने से तस्वीर बदली है। इसके बावजूद सिग्नलिंग प्रणाली के काम न करने, ट्रेनों की रफ्तार ज्यादा होने और ड्राइवरों के पास समय पर सूचना न पहुंचने के कारण हो रहे रेल हादसे बेहद गंभीर हैं।

पारदर्शिता में कमी : पहले और आज का एक फर्क यह है कि रेलवे से जुड़ी सूचनाएं और जानकारियां अब सार्वजनिक और पारदर्शी नहीं हैं। अलग से होने वाले रेल बजट को खत्म करने से रेलवे के प्रति आम लोगों की उत्सुकता कम रह गई है। यह ठीक है कि रेल बजट को खत्म कर रेलवे के जरिये की जाने वाली वाली राजनीति पर अंकुश लगाया गया है। अतीत में रेल मंत्रालय के जरिये अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करते एकाधिक रेल मंत्रियों को इस देश ने देखा ही है। लेकिन तब रेल बजट में नई ट्रेनें शुरू की जाती थीं, जिससे रेल डब्बों और इंजनों के निर्माण का काम चलता था, और जो अर्थव्यवस्था को गति देता था। नई ट्रेनें हालांकि अब भी चलाई जाती हैं, लेकिन इस मामले में कोई तय पैटर्न और पारदर्शिता नहीं है।

काम का बोझ : बढ़ते रेल हादसों का एक कारण ट्रेनों की रफ्तार को बताया जा रहा है। ट्रेनों की स्पीड बढ़ाने को रेलवे की प्रगति का पैमाना मान लिया गया, जबकि गति के अनुरूप रेल पटरियों, सिग्नलिंग सिस्टम आदि को तैयार नहीं किया गया। लोको स्टाफ सहित दूसरे कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ने से भी हादसे हो रहे हैं। रेल सुरक्षा से जुड़े लगभग डेढ़ लाख पद फिलहाल खाली पड़े हैं। रेल पटरियों की जर्जर हालत भी बढ़ते हादसों का कारण है। देश के लगभग सभी रेल रूटों पर पटरियां अपनी क्षमता से ज्यादा बोझ ढो रही हैं।

कमियां छिपाने की मंशा : बढ़ती रेल दुर्घटनाओं पर संसद की लोकलेखा समिति ने जो हालिया रिपोर्ट पेश की है, उसमें बताया गया है कि ऑपरेटिंग विभाग की गड़बड़ी, रेलवे के इंजीनियरिंग विभाग द्वारा रेलवे ट्रैक के रख-रखाव में गड़बड़ी और ड्राइवरों की गलतियों के कारण सबसे अधिक रेल दुर्घटनाएं हुई हैं। रेल दुर्घटनाओं की जांच के मामलों में भी पारदर्शिता की जगह लीपापोती ज्यादा दिखती है। इसके पीछे अपनी कमियां छिपाने की मंशा ज्यादा है। आज कम ही लोगों को याद होगा कि रेलवे सुरक्षा पर गठित खन्ना कमेटी ने रेल हादसे पर सख्त प्रावधानों की अनुशंसा की थी।

कवच सिस्टम की शुरुआत : रेल हादसों को रोकने के लिए सरकार ने वर्ष 2020 में टक्कर रोधी कवच सिस्टम की शुरुआत की। पर अभी तक देश के कुल रेल रूट के दो फीसदी हिस्सों में ही कवच सिस्टम लागू किया गया है। रेल के हर रूट पर कवच सिस्टम लगाने के लिए करीब 45,000 करोड़ रुपये की जरूरत है। सरकार ने अगले पांच साल में कुल 44,000 किलोमीटर के रेलवे ट्रैक को कवच से जोड़ने का लक्ष्य रखा है।

मौत के आंकड़ों से आगे : ट्रेन हादसों को सिर्फ मौत के आंकड़ों से नहीं देखा जा सकता। न ही मृतकों के परिजनों को दिए जाने वाले मुआवजों से हादसे की भीषणता कम होती है। बालासोर जैसे हादसे अनेक यात्रियों और उनके परिजनों पर कहर बनकर टूटते हैं। इन सबकी भरपाई मुआवजों से नहीं हो सकती। हादसों में ट्रेनों के डब्बों आदि के क्षतिग्रस्त होने का बोझ भी रेलवे की जेब पर पड़ता है। यही नहीं, हर रेल हादसा देश में रेलवे इन्फ्रास्ट्रक्चर और पेशेवरों की कमी के बारे में बताता है।

चुनौतियां कम नहीं : भारतीय रेल विविध चुनौतियों से जूझ रही है। इनमें सबसे बड़ी चुनौती तो आर्थिक ही है। यात्रियों से किराये के रूप में वह जितना पैसा लेती है, वह वास्तविक किराये से कम है। रेलवे का परिचालन व्यय भी 98.10 फीसदी से बढ़कर 98.22 प्रतिशत हो गया है। पर उसकी सेवाएं उत्तरोत्तर बदतर होती जा रही हैं। ऐसे में, उसकी पहली प्राथमिकता दुर्घटनाओं पर अंकुश लगाना होना चाहिए।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स