सर्दियों की बिदाई के साथ एक खुशनुमा मौसम ने दस्तक दे दी है। कुदरत की बहारों का खजाना हर तरफ फैला नजर आ रहा है। फूलों का खिलना, कोयल की सदा, मधुमक्खियों की घुमक्कड़ी, तितलियों का मंडराना, आम के पेड़ों में बौर की खुशबू। वसंत सभी का मनभावन मौसम है। लंबे इंतजार के बाद रुत बदल गई, मिजाज बदल गया। खुशियां बांटने, मोहब्बत के गीत गुनगुनाने के साथ प्रकृति सब को खुशी का पैगाम दे रही है। भारत ही नहीं नेपाल, पाकिस्तान, बंगलादेश में भी एक खास अंदाज में इस मौसम का स्वागत होता है। लाहौर में वसंत मनाने का अपना ही अंदाज है। अनारकली बाजार का मेला और वहां की पतंगबाजी भी इस मौसम को खास बना देती है।
काबिले फख्र बात यह भी है कि 21वीं सदी के हिंदुस्तान की लड़कियां भी मौसम के बदलाव की आहट को भांप कर अपनी जिंदगी की रुत को बदल डालने पर वादाबंद हो गई हैं। प्रिया रमानी, दिशा रवि, मीनाक्षी, हादिया, नुजहत, रोकय्या, शालिनी, एकता जैसी हिम्मतवर लड़कियां निडर होकर सामने आई हैं, जो दूसरी तमाम लड़कियों के लिए मिसाल बनी हैं। नाइंसाफी और गैरबराबरी पर टिके समाज और निजाम को वो बदल डालना चाहती हैं। ऐसे वक्त में जब हुक्मरान हर तरफ से पहरा बैठाने का पूरा इंतजाम कर चुके हैं, प्रेम करने वालों को खबरदार कर कानून गढ़ रहे हैं। इंसाफ की आवाज उठाने वालों को देशद्रोही साबित किया जा रहा है। अदालतों के फरमान बेअसर हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश सहित कई सूबों में इश्क करने वालों को मौत के घाट उतार दिया गया हो, आवाम की जाती जिंदगी में सरकार का काबू बढ़ता जा रहा हो, जम्हूरी और दस्तूरी हक कुचले जा रहे हों, सूबाई हुक्मरान भी खबरदार कर रहे हैं कि उनकी इजाजत के बगैर प्यार करने वालों का राम-नाम सत्य कर दिया जाए, उनके पोस्टर चौराहों पर चस्पा हों। ये अना ही तो है जो तहजीबों के बीच फसाद पैदा कर रही है। औरत के खिलाफ तैयार इस मौसम को भी औरतों ने बदल डालने की ठान ली है।
दूसरे मजहब में शादी करना एक गुनाह की तरह देखा जाने लगा। नैशनल फेमिली एंड हेल्थ सर्वे की 2015-16 की एक रिपोर्ट बताती है कि हिंदुओं में दूसरे मजहब में शादियां महज 1.6 प्रतिशत और दूसरी जाति में 12.4 प्रतिशत होती है। मुसलमानों में दूसरे मजहब में 4.7 प्रतिशत और ईसाइयों में यह 15.8 प्रतिशत है। सभी मजहबों का बड़ा तबका अब भी अपने ही मजहब में शादी करता है, लिहाजा सरकार की धर्मांतरण कानून बनाने की उजलत उनकी मंशा पर सवाल पैदा करती है।
एक तरफ कानून ही लिव-इन में रहने की इजाजत देता है, धारा 377 समलैंगिक संबंधों को भी ऊपरी अदालत ने अपराध नहीं माना, भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को इतना क्रांतिकारी बना दिया गया कि अब एक शादीशुदा मर्द किसी अन्य शादीशुदा खातून से भी संबंध बनाए तो गलत नहीं होगा। 1954 विशेष विवाह अधिनियम है। संविधान हर मायने में बराबरी देता है। वहीं दूसरी ओर प्रेम करने वालों को काबू में रखने की कोशिश कानून बनाकर हो रही है।
मोहब्बत तो खौफ के समंदर में बेखौफ जजीरा है। कड़े से कड़ा कानून भी मोहब्बत करने वालों को रोक नही पाएगा। रूमी इसे शान-ए-बेनियाजी कहते हैं। किसी मुल्क की तरक्की की माप उसमें रहने वाली औरतों के हालात से होती है, ऊंची इमारतों से नहीं। आज सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि औरतों के लिए जो स्थान घटता जा रहा है उस पर विचार हो, उसकी आवाज को दबाने का षड्यंत्र खत्म हो, उसके फैसलों को सम्मान मिले, मुल्क में संविधान सही मायने में लागू हो। क्योंकि औरत को गुलाम बन कर पितृसत्ता के सराब में रहना कतई मंजूर नहीं।
औरत व्यवस्था से सवाल कर रही है और कह रही है सीना पिरोना है धंधा पुराना हमें दो ये दुनिया गर रफू है कराना। तमाम चुनैतियों को स्वीकार करते हुए औरत नई इबारत लिखने को तैयार है, जो इस मुल्क की मुकम्मल खुशहाली के साथ जिंदगी को हमेशा के लिए वसंत से सराबोर कर सकती है।
सौजन्य - नाइश हसन