पर्यावरण और उसकी संरक्षा हमारे लिए बड़ी चुनौती है। पर्यावरण को लेकर पूरी दुनिया अति संवेदनशील है, लेकिन वास्तविक जीवन में उसका असर बेहद कम दिख रहा है। मानव प्रकृति से बिल्कुल दूर जाता दिख रहा है, जिसका नतीजा है कि हम प्रकृति की नाराजगी झेलने को मजबूर हैं। हाल ही में उत्तराखंड में आए प्राकृतिक जलजले से हमें सबक लेना चाहिए। अंधी विकास की होड़ से बचना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं कर पाए तो हमारे सामने आंधी-तूफान, बाढ़, अकाल और पहाड़ों के खींसकने की घटनाएं घटती रहेंगी। भोगवादी संस्कृति और विकास की दौड़ से बचना होगा। प्रकृति और पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाना होगा।
विकास की आड़ में जंगलों का सफाया हो रहा है। जिसकी वजह से वनों में रहने वाले प्राणियों की प्राकृतिक श्रृंखला बिखर रही है। जंगलों में रहने वाले हिंसक जानवर मानव बस्तियों में घूसपैठ कर रहे हैं। गर्मी का मौसम शुरू होने के साथ ही जल संकट गहरा गया है। जल संकट एक वैश्विक समस्या बनती जा रही है। क्योंकि जल का दोहन व्यापारिक लाभ के लिए होने लगा कृषि के अलावा दूसरे क्षेत्रों में भी जल की खपत अधिक बढ़ गई है। अब बड़ी-बड़ी कंपनिया पानी बेंचने का धंधा कर रही हैं। दूसरी सबसे बड़ी समस्या जल का अनियंत्रित दोहन किया होना है। पर्यावरण की चुनौती से बचने के लिए हमने कोई खाका तैयार ही नहीं किया है। अगर तैयार भी किया है तो वह धरातल पर नहीं है।
पर्यावरण संरक्षण का नारा सिर्फ मीडिया और मंचों तक सीमित हो गया है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार एक दिन में सबसे अधिक पौध रोपड़ का रिकार्ड भी पिछले साल बना चुकी है। गिनीज बुक में भी सरकार की उपलब्धियां दर्ज हो चुकी हैं। लेकिन जितने वृक्ष लगाए गए थे उनमें आज कितने हरेभरे हैं यह अपने आप में बड़ा सवाल है। क्योंकि पेड़ तो लगा दिए जाते हैं, लेकिन उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं दिखता है। वृक्षारोपड़ के नाम पर सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये कागजी हरियाली की भेंट चढ़ जाते हैं, लेकिन पेड़ लगाने के बाद सरकार और उसकी एजेंसियां उधर कभी मुड़कर भी नहीं देखती हैं। देश में भर में पर्यावरण संरक्ष अभियान में अब तक जीतने पेड़ लगें है वर्तमान समय में उनकी स्थिति क्या है यह कोई नहीं बता सकता है। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर सिर्फ कागजी नाटक किया जाता है। वृक्ष लगाने के लिए सरकारी खजाने से भारी भरकम बजट खारिज किया जाता है, हर अभियान में उसी स्थान विशेष पर पेड़ लगाए जाते हैं, लेकिन वहां कभी हरियाली दिखती ही नहीं है।
पर्यावरण संरक्षण को लेकर समाज में कुछ व्यक्तियों की पहल काबिलेगौर है। उत्तराखंड में कभी आपने चिपको आनंदोलन के प्रणेता सुंदरलाल बहगुणा का नाम सुना होगा। पहाड़ पर जंगलों को बचाने के लिए उन्होंने पेड़ों से चिपकने का आंदोलन चलाया, जिसे चिपको आंदोलन के नाम से जाना जाता है। लोग पेड़ों से लिपट जाते थे और वृक्षों को काटने से मना करते थे। लेकिन आज के दौर में सरकारें खुद जंगलों का सफाया कर रही हैं। बुलेट रेल के लिए मुंबई के आरे कालोनी में पेड़ो की कटाई का मसला अदालत तक पहुंच गया था। पर्यावरण संरक्षण को हम जनमुहिम नहीं बना पाए। क्योंकि इसके कई पहलू हैं जिसकी वजह से सरकारों के हाथ बंधे होते हैं। लेकिन हमारे आसपास के कुछ लोग पूरी तन्मयता से पर्यावरण संरक्षण को लेकर लगे हैं, ऐसे लोगों के प्रोत्साहन के लिए सरकारें और समाज कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं यह चिंता का विषय है, लेकिन इसकी परवाह किए बगैर ऐसे लोग अपने काम में लगे हैं।
उत्तर प्रदेश के भदोही जिले में एक शिक्षक पर्यावरण संरक्षण के लिए मिसाल बना है। उसे लोग ‘ट्री-मैन’ के नाम से बुलाते हैं। जूनियर हाईस्कूल में शिक्षक अशोक गुप्ता हर रोज वृक्षारोपण करते हैं। उन्होंने ‘सवा करोड़’ वृक्ष लगाने का संकल्प लिया है। अक्तूबर 2017 से इस मुहिम में लगे हैं। अब तक उन्होंने 1267 दिन में 7000 से अधिक वृक्षों का रोपण किया है। वह शिक्षक के साथ अंतर्राष्टीय एथलीट भी हैं। उन्होंने एशियाई और दूसरे खेलों में कई पदक भी जीते हैं। शिक्षा में उत्कृष्ट कार्य के लिए उन्हें राष्ट्रपति से ‘शिक्षक पुरस्कार’ भी मिल चुका है। अशोक गुप्ता के सामाने देश, काल और परिस्थितियां चाहे जो भी हों, वह पर्यावरण का दायित्व कभी नहीं भूलते हैं। देश में हो या विदेश में इसकी परवाह किए बगैर वह वृक्षारोपड़ जरुर करते हैं। उत्तर प्रदेश के अलावा वह दिल्ली, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडू, महाराष्ट्र समेत देश के दूसरे राज्यों में भी वृक्षारोपड़ कर चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने सिंगापुर और मलेशिया में भी वृक्ष लगाएं हैं।
शिक्षक अशोक कुमार ने बताया किया एक बार वह खेल के सिलसिले में सिंगापुर गए थे। वहां हवाई अड्डे पर उतरने के बाद पेड़ लगाने लगे जिस पर वहां की एयरपोर्ट एथारिटी ने विरोध किया। लेकिन जब उन्होंने अपना संकल्प बताया तो एथारिटी के लोग बेहद खुश हुए और उनका सहयोग किया। लोग उन्हें ‘इंडियन ट्री-मैन’ के नाम से पुकारा। उन्होंने बातया कि वे जहां-जहां पेड़ लगाते हैं वहां रविवार या छुट्टियों में अपने दोनों बेटों दुर्गाप्रसाद और आशुतोष के साथ जाते हैं। उन्हें पानी देते हैं और लोगों से पेड़ों की देखभाल करने की गुहार लगाते हैं। अभी तक उन्होंने जितने पेड़ लगाए हैं उनमें 80 फीसदी वृक्ष हरे-भरे हैं। इस कार्य से उन्हें बेहद शकून मिलता है। किसी व्यक्ति की तरफ से अगर उन्हें पेड़ों का सहयोग मिल गया तो ठीक है नहीं वह अपने पैसे से खरीद कर फलदार और छायादार वृक्षों को लगाते हैं।
पर्यावरण संरक्षण को लेकर उनके अंदर इतनी अधिक प्रेरणा है कि वह अपनी परिवारीक पीड़ा को भी भूल जाते हैं। कुछ साल पूर्व उनकी मां का निधन हो गया। वह गंगा घाट पर मां की चिता में मुखाग्नि देने के बाद जब संस्कार से निवृत्त हो गए तो खुद गंगा घाट पर पेड़ लगाया। उनके इस लगन को देख अंतिम संस्कार में गए लोगों की आंखों नम हो गई और सभी लोग उनके पर्यावरण के मुरीद हो गए। वहां मौजूद लोगों ने कहा, आप इंसान नहीं देवदूत हैं। आप अपनी पीड़ा भूल कर प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण में तल्लीनता से लगे हैं। पर्यावरण संरक्षण के उनके कार्य को देखते हुए स्थानीय स्तर पर कई सम्मान और पुरस्कार भी मिले हैं।
पर्यावरण उपलब्धियों को देखते हुए ‘लायंस क्लब’ ने उन्हें वृक्ष पुरुष की उपाधि से नवाजा है। भारत सरकार के जलशक्ति मिशन की तरफ से उन्हें ‘भदोही का ब्रांड अंबेसडर’ भी घोषित किया है। लेकिन जिला प्रशासन की तरफ से अभी इसका खिताब उन्हें नहीं मिल पाया है। उनका पूरा समय शिक्षण और पर्यावरण संरक्षण में बीतता है। अपने घर में उन्होंने खुद एक छोटी नर्सरी सजा रखी है। सड़क पर बेकार पड़े ‘पालीथिन’ का उपयोग वह नर्सरी के लिए करते हैं। सरकार और संस्थाओं की तरफ से ऐसी व्यक्तियों का पूरा सम्मान और सहयोग मिलना चाहिए। समाज में उनकी उपलब्धियों को पहुंचाना चाहिए। इस तरह के प्रशंसनीय कार्य करने वाले पर्यावरण हितैषी को पद्मश्री भले न मिले लेकिन ‘पर्यावरण रत्न’ तो मिलना चाहिए। समाज के लिए इनका योगदान अतूलनीय है।
लेखकः प्रभुनाथ शुक्ला