Read in App


• Thu, 4 Apr 2024 1:08 pm IST


PMLA की गुत्थी सुप्रीम कोर्ट ही सुलझाए


PMLA कानून के तहत हाल ही में ED ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और BRS नेता के. कविता को गिरफ्तार किया। दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया इसी कानून में पिछले साल गिरफ्तार हुए थे। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और AAP नेता संजय सिंह व सत्येंद्र जैन भी इसी कानून के तहत जेल में हैं। इन नेताओं को अभी जमानत नहीं मिल पाई है।

रिव्यू पिटिशन दायर : PMLA कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई थी, लेकिन शीर्ष अदालत ने इसे बहाल रखा था। हालांकि इस मामले में रिव्यू पिटिशन दाखिल हुई है, जिस पर सुनवाई अभी होनी है। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट कई बार PMLA के प्रा‌वधानों पर सुनवाई करते हुए ED को अलग-अलग मामलों में फटकार भी लगा चुका है।


कानून पर सवाल : सवाल है कि आखिर इस कानून के तहत जमानत मिलना इतना कठिन क्यों है। पहले जानते हैं कि इस कानून पर किस तरह के सवाल उठते रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट के सामने कहा गया था कि PMLA के तमाम प्रावधानों में खामियां हैं।
ECIR (इन्फोर्समेंट केस इन्फॉर्मेशन रिपोर्ट) की कॉपी आरोपी के साथ गिरफ्तारी के वक्त साझा नहीं की जाती।
आरोपी को पता नहीं होता कि उसके खिलाफ गिरफ्तारी के लिए क्या साक्ष्य एजेंसी के पास है।
धारा-45 के तहत डबल बेल कंडिशन पर आपत्ति करते हुए कहा गया कि यह अनुच्छेद-21 के तहत जीवन और स्वच्छंदता के अधिकार का उल्लंघन करता है। वहीं, इस एक्ट के तहत खुद आरोपी को जमानत के लिए कोर्ट को संतुष्ट करना होता है कि वह बेकसूर है।
एक्ट की धारा-19 में गिरफ्तारी के प्रावधान किए गए हैं। लेकिन उससे अलग भी ED अधिकारी समन करने के दौरान आरोपी को हिरासत में ले सकते हैं।
धारा-50 के तहत ED जो बयान दर्ज करता है, वह मान्य साक्ष्य के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। यह संविधान के अनुच्छेद-20 (3) का उल्लंघन है, जो कहता है कि किसी को खुद के खिलाफ गवाही के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
ED का अधिकारी भी पुलिस अधिकारी की तरह ही है और उनके सामने दिए गए बयान की कोई मान्यता नहीं होनी चाहिए।
दोहरी शर्त : मगर सुप्रीम कोर्ट ने 27 जुलाई 2022 के फैसले में PMLA कानून को बरकरार रखा। कोर्ट ने ED की गिरफ्तारी, संपत्ति अटैचमेंट और सीज करने के अधिकार को PMLA के तहत वैध करार दिया। उसने कहा कि धारा-45 के तहत जमानत की कड़ी शर्त वाले प्रावधान सही हैं। इसके तहत मनी लॉन्ड्रिंग केस में आरोपी को तभी जमानत दी जा सकती है, जब वह दोहरी शर्तें पूरी करे। अव्वल तो यह कि पहली नजर में दिख रहा हो, आरोपी ने अपराध नहीं किया है। दूसरे, जमानत के दौरान अपराध होने की आशंका न बची हो।

ED अधिकारी पुलिसवाले नहीं : सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि ED अधिकारी और पुलिस अधिकारी एक नहीं हैं। ED अधिकारी के सामने दर्ज बयान एक्ट की धारा-50 के तहत रेकॉर्ड होता है, जो मान्य है। पुलिस के सामने दिया बयान मान्य नहीं होता। शीर्ष अदालत के उस फैसले के मुताबिक, ECIR चूंकि आंतरिक दस्तावेज है, इसलिए आरोपी की गिरफ्तारी के वक्त उसकी कॉपी सप्लाई करना अनिवार्य नहीं है। गिरफ्तारी का आधार बताना ही काफी है। ED अधिकारी के सामने PMLA की धारा-50 के तहत आरोपी जो बयान देता है उस आधार पर आगे की कार्रवाई होती है और कोर्ट के मुताबिक यह संविधान के अनुच्छेद-20 (3) का उल्लंघन नहीं है।

विचार की गुंजाइश : इस फैसले के खिलाफ दाखिल रिव्यू पिटिशन पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पहली नजर में जजमेंट के कुछ पहलुओं पर दोबारा विचार की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने कई अन्य मामलों में ED और PMLA पर सख्ती दिखाई।

20 मार्च 2024 को एक मामले में सर्वोच्च अदालत ने कहा कि मनी लॉन्ड्रिंग केस के ट्रायल में अगर देरी हो तो जमानत दिए जाने पर रोक नहीं है। जस्टिस खन्ना ने कहा कि जमानत का अधिकार अनुच्छेद-21 के तहत मिला हुआ है और यह अधिकार PMLA की धारा-45 द्वारा नहीं छीना जा सकता।
4 अक्टूबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ED के समन के बावजूद उससे सहयोग न करना गिरफ्तारी का आधार नहीं हो सकता। रिमांड के वक्त यह देखना जरूरी है कि गिरफ्तारी वैध है या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में 29 नवंबर 2023 को कहा था कि ED तब तक आपराधिक साजिश यानी IPC की धारा-120 का इस्तेमाल कर मनी लॉन्ड्रिंग का केस नहीं बना सकता, जब तक कि साजिश मनी लॉन्ड्रिंग से लिंक न हो।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ED को आरोपी की गिरफ्तारी के समय लिखित में इसका आधार बताना चाहिए। ED के तमाम एक्शन में पारदर्शिता दिखनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि जब ED गिरफ्तारी के बाद आरोपी को रिमांड के लिए पेश करे तो कोर्ट को रिमांड ऑर्डर के वक्त सुनिश्चित करना होगा कि गिरफ्तारी PMLA एक्ट की धारा-19 के तहत वैलिड है या नहीं।
कानून के पेच : बहरहाल, PMLA कानून और सुप्रीम कोर्ट की अलग-अलग मामलों में दी गई व्यवस्था दोनों को समग्रता से देखने की जरूरत है ताकि अपराधी शिकंजे में आएं और निर्दोषों के अधिकारों का उल्लंघन न हो। हाल ही में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरोपी को बिना ट्रायल के हिरासत में रखना कैद की तरह है। सुप्रीम कोर्ट इन मामलों की समय-समय पर समीक्षा करता रहा है और व्यवस्था भी देता रहा है। इसके बावजूद किंतु-परंतु की गुंजाइश बनी हुई है जो संभवत: रिव्यू पिटिशन पर फैसला आने के बाद ही समाप्त होगी।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स