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• Thu, 1 Apr 2021 4:31 pm IST


दस्तूर और दस्तूरी की दहन वेला


सबसे पहले यह पुराना किस्सा सुनिए। उत्तर प्रदेशके एक ऊंघते शहर की लड़की का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए हो गया था। उसने अपना पहला कार्यभार सब-डिविजनल मजिस्टे्रट के तौर पर संभाला। एक दिन जब वह ऑफिस गई, तब अपनी टेबल पर बंद लिफाफा रखा पाया। लिफाफा खोलते ही हैरत में पड़ गई। उसमें नोट भरे हुए थे। क्रोध, हैरानी और परेशानी के मिले-जुले भावों से दो-चार हो रही उस महिला अफसर ने अपने पेशकार को बुला भेजा। पेशकार महोदय ने रहस्यात्मक मुस्कान के साथ कहा कि मैडम, ऐसा लिफाफा हर महीने अमुक साहब के पास से आता रहेगा। उसने वह लिफाफा लौटा दिया, पर अपनी बॉस के तेवरों से अविचलित पेशकार ने कहा, ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। अफसरान शुरू में ऐसे ही बर्ताव करते हैं, पर बाद में औरों जैसे हो जाते हैं। 
इस वाकये से हतप्रभ उस नौजवान महिला ने अपने एक वरिष्ठ अधिकारी से सलाह मांगी। अधिकारी ने कहा, यह सब तंत्र का हिस्सा है। जो ‘दस्तूर’और ‘दस्तूरी’ का पालन करते हैं, उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती। इसकी वजह यह है कि हमारे प्रशासनिक पाए का निचला तंत्र राजनीतिक तौर पर इतना शक्तिशाली है कि लाख चाहने के बावजूद समूचे तौर पर नियम-कायदे का राज स्थापित नहीं किया जा सकता। बरसों बाद वह महिला अफसर प्रदेश में बडे़ ओहदे तक पहुंची। वह अपने लंबे कार्यकाल में दस्तूर तथा दस्तूरी के नए मानक स्थापित कर चुकी थी। करियर के शुरुआती दिनों में जानकारी में आया यह किस्सा मुझे हैरान करता था। हालांकि, बाद में यह हैरानी यकीन में तब्दील होती चली गई कि सरकारी व्यवस्था में ऐसे तमाम झोल हैं, जो सरकारों, अफसरों और नेताओं की अदला-बदली के बावजूद बदस्तूर जारी रहते हैं। हमारी व्यवस्था में महज चेहरे बदलते हैं, दस्तूर और दस्तूरी नहीं। महाराष्ट्र में परमबीर सिंह के आरोपों से एक बार फिर यही साबित होता है। उन्होंने गंभीर आरोप लगाया है कि राज्य के गृह मंत्री ने निलंबित इंस्पेक्टर सचिन वाझे को न केवल 100 करोड़ रुपये प्रतिमाह उगाही का लक्ष्य दिया था, बल्कि उसे हासिल करने के तरीके भी बताए थे। आज परमबीर सिंह सुप्रीम कोर्ट से जिस सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं, कुछ महीनों पहले वह महाराष्ट्र सरकार के इस रवैये के संवाहक थे कि सुशांत सिंह राजपूत की मौत की जांच मुंबई पुलिस को करनी चाहिए। टीआरपी घोटाले में उन्होंने जब प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी, तब भी वह एक पत्रकार विशेष के विरुद्ध ज्यादा मुखर थे। अन्य खबरिया चैनलों पर भी उसी रिपोर्ट में समान आरोप दर्ज थे, पर न जाने क्यों उन्होंने उनके नामों का उल्लेख नहीं किया था। उस पत्रकार और महाराष्ट्र सरकार की खुन्नस जगजाहिर है। क्या उस वक्त वह प्रशासनिक दस्तूर का पालन नहीं कर रहे थे? ऐसा नहीं है कि उनके पहले के अफसरों ने आवाज बुलंद नहीं की। साल 2003 में बिहार के तत्कालीन महानिदेशक-पुलिस, डी पी ओझा को राबड़ी देवी ने पद से हटाया था। वह सत्तारूढ़ दल के अपराधी तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने पर दृढ़ प्रतिज्ञ थे। उन्होंने पद पर रहते हुए सत्ता में बैठे लोगों को ‘शैतानों और अपराधियों का झुंड’ तक कह दिया था। ओझा से जब पदभार छीना गया, तब समूचे देश की सहानुभूति उनके साथ थी। उन्हें लगा कि यह लोकप्रियता स्थाई है और वह निर्दलीय चुनाव लड़ बैठे। उन्हें महज 5,780 वोट मिले थे। उस वक्त उनकी समझ में आ गया होगा कि एक ईमानदार अफसर की लोकप्रियता उसे सफल राजनेता बनाने के लिए पर्याप्त नहीं है। 
इसी तरह की कहानी 1991 बैच के आईएएस अफसर अशोक खेमका की है। वह अपनी ईमानदारी के चलते अक्सर सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों से टकरा जाते हैं। हरियाणा कैडर के इस अफसर की तीन दशक पुरानी नौकरी में प्राय: सभी मुख्यमंत्रियों से ठनी रही, जिसकी वजह से 28 साल में उनके 53 बार तबादले हुए। हरियाणा की मौजूदा खट्टर सरकार भी उन्हें चार बार इधर से उधर कर चुकी है। ओझा हों या खेमका, दस्तूर और दस्तूरी के खेल से निपटने में उन्होंने जी-जान लगा दी, पर ऐसे तमाम अफसर हैं, जिन्होंने इस नियति को चुपचाप स्वीकार कर लिया। कुछ तो इस मामले में इतना आगे बढ़ गए कि उन पर न केवल मुकदमे चले, बल्कि सजा तक हो गई। कोयला घोटाले में तत्कालीन कोयला सचिव हरीश चंद्र गुप्ता सहित तीन आईएएस अफसरों को दंड प्रावधानों का सामना करना पड़ रहा है। हरीश चंद्र गुप्ता 1982 में इलाहाबाद के जिलाधिकारी हुआ करते थे। उस जमाने में उनकी छवि नेक और कुशल प्रशासनिक अधिकारी की होती थी। एक युवा रिपोर्टर के नाते मैंने उनकी कार्यप्रणाली को नजदीक से देखा और मुझे लगता था कि वह आगे चलकर उन अफसरों की गौरवशाली सूची में नाम दर्ज कराएंगे, जिन्होंने देश और समाज के लिए काम किए हैं। उनका यह हश्र मुझे चौंकाता है। हमारा यह तंत्र कितना मुंहचोर है, इसका एक और उदाहरण देना चाहूंगा। मुंबई बम धमाकों के बाद पूर्व गृह-सचिव एन एन वोहरा की अध्यक्षता में बनी समिति ने अपराधियों, नौकरशाहों और राजनेताओं की सांठगांठ के बारे में एक रिपोर्ट तैयार की थी। 1993 में सौंपी गई करीब 110 पन्नों की रपट के सिर्फ 11 पन्ने सार्वजनिक किए गए, वह भी दो बरस बाद। जब सरकार पर पूरी रिपोर्ट सार्वजनिक करने का दबाव बढ़ा, तो वह सुप्रीम कोर्ट चली गई। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि सरकार पूरी रिपोर्ट के खुलासे हेतु बाध्य नहीं है। कोर्ट ने साथ में यह अपेक्षा भी व्यक्त की कि सरकार उसकी सिफारिशों को गंभीरता से लागू अवश्य करे। 28 साल से वह रिपोर्ट किसी सरकारी रिकॉर्ड रूम के गुमनाम कोने में पड़ी हुई है। अफसरों और राजनेताओं ने उसे भुला दिया है। काश, आज होलिका दहन में दस्तूर और दस्तूरी का यह दानव भी भस्म हो सकता! मुझे यहां पिछले साल की 25 मई को अमेरिका में एक गोरे पुलिस वाले द्वारा अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद हुए दंगे याद आ रहे हैं। उस दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भड़काऊ ट्वीट कर दिया था। महामहिम के इस गैर-जिम्मेदाराना रवैये पर ह्यूस्टन के पुलिस प्रमुख आर्ट एक्वेडो ने कहा था- ‘मुझे इस देश के पुलिस प्रमुखों की तरफ से अमेरिकी राष्ट्रपति से सिर्फ यही कहना है कि अगर आपके पास कहने को  कुछ सकारात्मक नहीं है, तो कृपया अपना मुंह बंद रखें।’अगर परमबीर सिंह ने पुलिस कमिश्नर के पद पर रहते हुए यह रहस्योद्घाटन किया होता, तो वह भी श्रेष्ठ नौकरशाहों के इस ‘हॉल ऑफ फेम’ का हिस्सा बन सकते थे।

सौजन्य – हिंदुस्तान