Read in App


• Tue, 22 Jun 2021 7:00 pm IST


पिता शांत और सहज भाव से निभाते रहते हैं अपनी भूमिका


मानवीय संबंध कोई अनुबंध नहीं, बल्कि पारिवारिक रिश्तों की सौंधी सुगंध हैं। मानव जीवन की डोर रिश्तों के नाज़ुक धागों से बंधी होती है। कहने को ये रिश्ते-नाते बंधन-से प्रतीत होते हैं परंतु समाज की जीवंतता, उत्सव और आनंद इन्हीं रिश्तों में निहित होते हैं। इंसान अपने जीवनकाल में अनेक चरणों से होकर गुज़रता है और स्वाभाविक रूप से परिवर्तित भी होता रहता है। जैसे ही पति-पत्नी को यह बोध होता है कि अब वो मातृत्व और पितृत्व को प्राप्त करने वाले हैं, वैसे ही जीवन के प्रति, रिश्तों के प्रति, यहां तक कि एक-दूसरे के प्रति उनका रवैया और दृष्टिकोण दोनों बदल जाते हैंI वे जीवन को और अधिक मूल्यवान समझने लगते हैं और रिश्तों को और सम्मान देने लगते हैं। यहां तक कि दूसरे के प्रति भी उनके भीतर आदर और अपनत्व में वृद्धि हो जाती है।

मां के बारे में हम सभी ने पढ़ा और जाना है, क्योंकि वो जननी होती है जो प्रत्यक्ष रूप से संतति को संसार में लाने का उत्तरदायित्व निभाती है। लेकिन कहीं न कहीं हम जनक की भूमिका और उसके महत्व का सही आकलन नहीं कर पाते जो बड़े ही शांत-सहज भाव से अपनी भूमिका को निभा रहा होता है।


पिता की अहम भूमिका
जीवन उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों की अनवरत शृंखला ही तो है, जिसको पूर्ण करने के लिए माता-पिता हर पल तैयार रहते हैं। पिता का रूप हमेशा घर में एक नियम, क़ायदे और अनुशासन के भाव को जाग्रत करने वाले व्यक्ति के रूप में प्रतिबिंबित होता है। उनके निर्देशानुसार ही बच्चा अपने व्यक्तित्व का निर्माण करने का प्रयास करता है। पिता उसके तमाम अरमान और आवश्यकताओं की पूर्ति करने के अलावा उसका ग़ुरूर और अभिमान भी बन जाते हैं। बच्चों की परवरिश में पिता की भूमिका अहम होती है। बच्चों का सामाजिक अस्तित्व पिता पर ही टिका होता है। पिता से ही पहचान निर्मित होती है। हर बार अपने बच्चों के हक़ के लिए, उनकी हर ज़रूरत को समय से पूरा करने के लिए पिता कटिबद्ध होते हैं।
पुत्र हो या पुत्री, दोनों के लिए पिता ही ज्ञान, ध्यान, विज्ञान और आत्म अभिमान के स्रोत होते हैं। पिता कई बार आर्थिक तंगी होने पर भी अपने बच्चों को उसका एहसास नहीं होने देते। ख़ुद सह लेंगे पर बच्चों की इच्छाओं और ज़रूरतों की पूर्ति करने में पिता अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं। पिता साथी हैं, मित्र हैं, सखा हैं और गुरु भी हैं। वे भटके हुए बच्चों को सही राह दिखाते हैं, अपने जीवन के अनुभवों को साझा करके जीवन पथ पर निर्भीक डटे रहने की सीख और सलाह भी देते हैं। मां हमेशा स्वीकार की मुद्रा में रहती हैं कि- जैसा तुम्हारे पिता कहें।

पुत्र और पुत्री से रिश्ते
अक्सर मान लिया जाता है कि पिता और पुत्री का रिश्ता तो हमेशा ही प्यार और लाड़ से भरपूर होता है, लेकिन पिता और पुत्र के बीच दूरी बनी रहती है। यह दूरी पिता-पुत्र के संबंधों में अधिक दृष्टिगत हो जाती है, जबकि पिता-पुत्री के संबंधों में इसका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हो पाता। इसका सीधा कारण यह है कि पिता के मन में पुत्री की सुरक्षा, उसको एक संतुष्ट और सुरक्षित जीवन देने की अभिलाषा होती है, जबकि अपने पुत्र को वे आने वाले उत्तरदायित्वों के लिए प्रायोगिक और व्यावहारिक रूप से तैयार कर रहे होते हैं। कुछ लोग इस बात से सहमत हो सकते हैं और कुछ नहीं भी- यह इस बात पर निर्भर करता है कि समाज में परिवार और रिश्तों के प्रति उनका नज़रिया कैसा है।