कुछ साल पहले मेरे बुआ के यहां शादी थी। उनका घर बलरामपुर के एक गांव में है। योजना अनुसार सबको अलग-अलग काम सौंपे गए। हम सभी भाइयों को खाना खिलाने का काम मिला। हम लोग खाना परोसने में लग गए। सब कुछ ठीक चल रहा था कि मेरा छोटा भाई कहने लगा, ‘दद्दा, सभी मुरब्बा मांग रहे हैं, क्या करें?’ मैं सोच में पड़ गया। हम लोग गोंडा के हैं और हमारे यहां मुरब्बा आंवले से बनता है। मगर शादियों में तो यह बनता नहीं। शादियों में तो हमारे यहां आम या पपीते का गलका ही बनता है। मीठा वह भी होता है, पर उसमें मेथी-सौंफ की छौंक लगती है।
मैंने कहना शुरू कर दिया है जब है ही नहीं तो दें कहां से? जो भी मुरब्बा मांगता, उसे हम गलका देते। पर गलका तो कोई खा ही नहीं रहा था। मैंने मन ही मन सोचा की जब कोई खाता ही नहीं तो बनवाया क्यों था? खैर, आधी रात के बाद सब अपने काम से फ्री हो गए। फूफा जी आए और पूछने लगे कि सबको खिला दिया, तो मैंने झट से कहा कि हां सबको खिला तो दिया, लेकिन गांव के लोग एक ही रट लगाए थे कि मुरब्बा दे दो! अब मुरब्बा था ही नहीं। शादी में कौन मुरब्बा बनाता है? फूफा जी ने कहा, ‘अरे, तो दे देते मुरब्बा। बना तो है।’ मैंने कहा, ‘कहां बना है? चलिए दिखाइए।’
फूफा जी खाने की तरफ गए, और एक बर्तन खोल कर बोले, ‘अरे! ये तो सबका सब रखा है। तुम लोगों ने किसी को खाने को नहीं दिया?’ मैंने आगे बढ़ के देखा और फिर बोला, ‘यह तो गलका है। मैंने पूछा था, किसी ने नहीं खाया तो नहीं दिया।’ फूफा जी कुछ देर तक चुप खड़े रहे, फिर जोर से हंसकर बोले, ‘हमारे यहां गलका को ही मुरब्बा कहते हैं। तुमने सबको बिना मुरब्बा खिलाए ही भेज दिया।’ सब लोग मुझे देखकर हंस रहे थे। मैंने पूछा, ‘तो खाने वालों ने क्यों नहीं पहचाना कि यही मुरब्बा है?’ ‘जैसे तुम कन्फ्यूज थे, वैसे ही गांव वाले भी कन्फ्यूज हो गए।’ फूफा जी बोले।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स