कल पकौड़ियाँ बनी थीं, कुछ बच गईं तो उन्हें कांजी में डाल दिया था. आज उन पर दही के छींटे मारकर पत्नी चाय के साथ ले आई, बोली- लो, आज बिना मांगे ही चाय के साथ सरप्राइज़.
तोताराम बोला- ठीक है, पकौड़ा तलना रोजगार हो सकता है लेकिन चाय के साथ दही वाले पकौड़े एक अस्वास्थ्यकर, असांस्कृतिक और देशद्रोही मेल है. इसे अंग्रेजी में ‘मिसमैच’ कहते हैं. यह वैसे ही नाकाबिले बर्दाश्त है जैसे झारखंड में बिरसा मुंडा और हाफमैन एक साथ.
हमने पूछा- यह हाफमैन क्या कोई आदिमानव है जिसे झारखंड के जंगलों में खोजा गया है और इसके माध्यम से नृतत्व शास्त्र और सामाजिक विकास के अध्ययन के क्षेत्र में कोई नई शोध प्रकाश में आएगी ?
बोला- नहीं. ये जून 1857 में जन्मे जोहान्स बैप्टिसेट हाफ़मैन (फ़ादर हाफ़मैन) दरअसल एक जर्मन नागरिक थे. वे महज़ 20 साल की उम्र में भारत आ गए. यहां आने के बाद उन्होंने आसनसोल और कलकत्ता (अब कोलकाता) में धर्मगुरु बनने की ट्रेनिंग ली.
फ़ादर हाफ़मैन को 1891 में पादरी की उपाधि मिली. 1892 में वे बंदगांव आए. मुंडा आदिवासियों की भाषा मुंडारी सीखी. उनकी संस्कृति, समाज और इतिहास के बारे में जाना और फिर मुरहू के पास के गांव सरवदा आ गए. वहां एक विशाल कैथोलिक चर्च की स्थापना कराई. यह दक्षिणी छोटानागपुर के सबसे पुराने चर्चों में शामिल है.
सरवदा अब झारखंड के खूंटी ज़िले के मुरहू प्रखंड का हिस्सा है. बहुत कम घरों वाले सरवदा गांव के इसी चर्च परिसर में सभी आदिवासियों के सहयोग से दिसंबर 2018 में फ़ादर हाफ़मैन की प्रतिमा स्थापित की गई थी. आदिवासी उन पर फूल चढ़ाते हैं और वहां मोमबत्तियां जलायी जाती हैं. उन्हें इसलिए याद किया जाता है, क्योंकि उन्होंने सीएनटी एक्ट लागू करवाने में अहम भूमिका निभायी थी.
उपलब्ध गजेटियर के मुताबिक़, उनके कहने पर ही उस समय की ब्रिटिश हुक़ूमत ने 1902 में आदिवासियों की ज़मीनों का सर्वे कराया. इस सर्वे में फ़ादर हाफ़मैन भी शामिल थे. उन्होंने एक ‘ड्राफ़्ट बी’ तैयार किया, जिसे सीएनटी एक्ट का प्राथमिक ड्राफ़्ट कहा जाता है. इसके बाद साल 1908 में सीएनटी एक्ट लागू किया गया. इसके कारण आदिवासियों की ज़मीनों के संरक्षण के कई पारंपरिक नियमों (जो कहीं दस्तावेज़ों में दर्ज़ नहीं थे) को क़ानूनी मान्यता मिल गई.
उससे पहले वे ग्राम सभाओं के मौखिक क़ानून थे. सीएनटी क़ानून आज तक इस इलाक़े में लागू है. इससे आदिवासी ज़मीनों (ट्राइबल लैंड) को क़ानूनी संरक्षण मिलता है.
हमने कहा- किन्हीं भोले-भाले लोगों के ज़मीन के अधिकार की सुरक्षा हो, कोई उनकी ज़मीनों के रिकार्ड में हेराफेरी नहीं कर सके, ऐसी व्यवस्था के बारे में सोचना, उसे लागू करवाना तो बड़ा पुण्य का काम है. वैसे आज भी सरकारें विकास के नाम पर आदिवासियों की ज़मीनें हथियाती है और अपने चहेतों को सस्ते में आवंटित कर देती हैं और आदिवासियों को ढंग से पुनर्वासित भी नहीं करती.
बोला- ये सब विदेशी विधर्मी हैं जो किसी षड्यंत्र के तहत भारत आते हैं और यहाँ के वंचित, प्रताड़ित, अपमानित, दलित, अशिक्षित, गरीब लोगों का धर्मांतरण करवाते हैं.भारत को कमजोर करते हैं. यही काम इस्लाम वाले भी करते हैं. कभी लव जिहाद, कभी यूपीएससी जिहाद, कभी कोरोना जिहाद. पहले की बात और थी लेकिन अब इन्हें बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. अगर तेरा यह हाफमैन आज जिंदा होता तो यूएपीए लगाकर जेल में ही आदिवासियों के ज़मीन संरक्षण के बहाने धर्मांतरण का षड्यंत्र रचने वाले स्टेंस स्वामी की तरह ‘निल मैन’ बना दिया जाता.
अगर यह हाफमैन आदिवासियों के लिए खतरनाक नहीं होता तो आदिवासियों के महान नेता बिरसा मुंडा हाफमैन पर तीर क्यों चलाते ?
हमने कहा- यदि ऐसी बात है तो भारत के समर्थ और शक्तिशाली लोगों को चाहिए कि वे अपने देशवासियों का शोषण न करें, उन्हें दुखी न करें जिससे वे दूसरे धर्मों की और आकर्षित ही न हों. हाँ, जहां तह बिरसा मुंडा के हाफमैन पर तीर चलाने के कारण की बात है तो इसका कारण तो कोई सच्चा देशभक्त ही बता सकता . जैसे कि कंगना रानावत जिसने गहन अध्ययन करके बताया कि भारत २०१४ में मोदी जी के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के समय स्वतंत्र हुआ. अब वे यह भी शोध करने में लगी हुई है कि इस सृष्टि का प्रारंभ मोदी जी के साथ ही हुआ या एक दो दिन पहले भी हो सकता था.
बोला- लेकिन मुंडा जी ने हाफमैन पर तीर क्यों चलाया ?
हमने कहा- कई कारण हो सकते हैं. हो सकता है कि उसे आदिवासियों का हितैषी न समझकर कोई अंग्रेज अधिकारी समझ लिया हो क्योंकि आज भी अधिकतर भारतीय गोरे रंग के हर व्यक्ति को अंग्रेज ही समझते हैं. जैसे ९/११ के समय अमरीका में दाढ़ी के कारण एक सरदार को मुसलमान समझकर मार दिया गया. वैसे हाफमैन ने आदिवासियों का कोई बुरा तो नहीं किया. और फिर क्या किसी भारतीय ने मुंडा समुदाय की भाषा ‘मुंडारिका’ के हाफमैन के १५ भागों के विश्वकोष जैसा तो दूर, कुछ भी काम नहीं किया ? ऐसे एकेडेमिक रुचि के व्यक्ति को दूसरों को गाली निकालने वाले वाट्सअपिये वारियर्स क्या समझेंगे.
वैसे कभी-कभी कई विरोधी लगने वाली पैथियों- तकनीकों को भी तो एक साथ अपनाया जा सकता है जैसे मोदी जी योग भी करते हैं लेकिन कोरोना का टीका भी लगवाया कि नहीं ? रामदेव के साथ मिलकर दुनिया को योग और लौकी का ज्यूस बेचने वाले बालकृष्ण बीमार होने पर एम्स में भर्ती हुए कि नहीं ? क्रांतिकारी सावरकर जी अंग्रेजों से ६० रुपया महिना पेंशन लेते थे कि नहीं ? बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर बनी सरकार में जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी उपमुख्यमंत्री बने थे कि नहीं ? जब सिकंदर बख्त ने एक हिन्दू महिला से शादी कर ली थी तो क्या जनसंघ के नेता उनके खिलाफ नारे लगाने गए थे कि नहीं ? फिर उन्हीं को केरल का राज्यपाल बनाया कि नहीं ? कभी कभी बेमेल से भी मेल कर लिया जाता है.
सौजन्य से - नवभारत टाइम्स