यह संयोग ही
है कि जब
देश आजादी का
अमृत महोत्सव मनाने की तैयारी में
जुटा है, तभी जातीय जनगणना को लेकर राजनीति तेज हो गई
है। ऐसे में
यह सवाल उठना
लाजिमी है कि
आखिर जाति को
लेकर हमारे स्वाधीनता सेनानी क्या सोच
रहे थे। इसी
संदर्भ में महात्मा गांधी के उस
लेख का जिक्र किया जा सकता
है, जो
‘यंग इंडिया’
के एक मई
1930 के अंक
में छपा था।
इसमें गांधी जी
ने लिखा है,
‘मेरे, हमारे,
अपनों के स्वराज में जाति और
धर्म के आधार
पर भेद का
कोई स्थान नहीं
हो सकता। स्वराज सबके लिए, सबके कल्याण के
लिए होगा।’
अंग्रेजों का कुचक्र
बापू की इस
भावना का संविधान सभा ने भी
ध्यान रखा। लेकिन आजादी के बाद
जैसे-जैसे जातीय गोलबंदी की राजनीति तेज हुई, बापू के इन
शब्दों का प्रभाव कम होने लगा।
हर जाति अपने-अपने खांचे में
और मजबूत होने
का राजनीतिक ख्वाब देखने लगी। जातीय गोलबंदी की राजनीति को जाति आधारित जनगणना में अपनी
राह दिखने लगी।
आश्चर्य नहीं कि
पिछड़े वर्गों की
स्थिति पर 1980 में रिपोर्ट प्रस्तुत करने वाले बीपी
मंडल ने भी
यह मांग सामने रखी। यह बात
और है कि
तब के गृह
मंत्री ज्ञानी जैल
सिंह ने इसे
नामंजूर कर दिया
था।
अंग्रेजों ने 1931 में जो जनगणना कराई थी, उसका एक आधार जाति भी थी। दूसरे विश्व युद्ध के चलते 1941 में जनगणना नहीं हुई। भारत को तोड़ने के लिए अंदरूनी स्तर पर अंग्रेज जिस तरह का कुचक्र रच रहे थे, संभव है कि अगर 1941 में जनगणना हुई होती तो उसमें भी जाति को आधार बनाया जाता। आजादी के बाद जब 1951 की जनगणना की तैयारियां हो रही थीं, तब भी जाति जनगणना की मांग उठी। लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने इसे खारिज कर दिया था। तब पटेल ने कहा था, ‘जाति जनगणना देश के सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ सकती है।’ इसका समर्थन तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू, आंबेडकर और मौलाना आजाद ने भी किया था। इसके पहले संविधान सभा की एक बहस में भी पटेल गांधी जी के विचारों के मुताबिक आगे बढ़ने की मंशा जताते हुए जाति आधारित आरक्षण की मांग को खारिज कर चुके थे।
भारतीय स्वाधीनता आंदोलन सिर्फ राजनीतिक आंदोलन नहीं था। उसमें सामाजिक सुधार के भी मूल्य निहित थे। स्वतंत्रता सेनानियों ने जिस भावी भारत का सपना देखा था, उसमें जातिवाद की गुंजाइश नहीं थी। संविधान और कानून के सामने सभी बराबर थे। हालांकि आजादी के बाद विशेषकर समाजवादी धारा की राजनीति जैसे-जैसे आगे बढ़ी, परोक्ष रूप से जातिवादी राजनीति को ही बढ़ावा देती रही। डॉक्टर लोहिया जाति तोड़ने की बात करते थे। लेकिन उनके अनुयायियों ने जाति तोड़ने के नारे को सतही तौर पर स्वीकार किया। लोहिया मानते थे कि आर्थिक बराबरी होते ही जाति व्यवस्था खत्म तो होगी ही, सामाजिक बराबरी भी स्थापित हो जाएगी। इसलिए उन्होंने जाति तोड़ो के अपने विचार में आपसी विश्वास आधारित उदारवादी दृष्टिकोण अपनाने पर जोर दिया था। लोहिया ने लिखा है, ‘जाति प्रणाली परिवर्तन के खिलाफ स्थिरता की जबरदस्त शक्ति है। यह शक्ति क्षुद्रता और झूठ को स्थिरता प्रदान करती है।’ लेकिन लोहिया के अनुयायी इस सोच को ध्वस्त करते रहे। यह अप्रिय लग सकता है, लेकिन इस तोड़क भूमिका में लोहिया के दिए नारे ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’ की भी परोक्ष भूमिका रही। इस नारे के जरिए समाजवादी राजनीति का पिछड़ी जातियों में आधार मजबूत तो हुआ, लेकिन जाति टूटने के बजाय और मजबूत होने लगी।
जाति आधारित जनगणना: किस तरह होती है जातियों की गिनती? 1931 में आखिरी बार हुई तो क्या पता चला, जानिए
जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुईं तो जातीय राजनीति ने इसमें अपने लिए मौका देखा। हर जाति राजनीतिक अधिकार पाने के लिए अपने खोल को मजबूत करने में जुट गई। यह उलटबांसी ही है कि जिस जयप्रकाश आंदोलन से निकली गैर कांग्रेसी सरकार ने मंडल आयोग गठित किया, उसी आंदोलन के दौरान जयप्रकाश नारायण के गांव सिताबदियारा में 1974 में हुई एक बैठक में जातिवादी व्यवस्था तोड़ने की दिशा में गंभीर प्रयास करने का प्रस्ताव पारित हुआ था। तब जयप्रकाश ने नारा दिया था, ‘जाति छोड़ो, पवित्र धागा तोड़ो, इंसान को इंसान से जोड़ो।’ जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद इस इन प्रयासों में तेजी आनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। क्योंकि जाति तोड़ने की बात करने वाली राजनीति के अधिकांश अनुयायी जातियों की गोलबंदी में अपना भविष्य देख रहे थे। इसका आभास चंद्रशेखर को था, इसलिए उन्होंने जयप्रकाश से आशंका जताई थी कि आने वाले दिनों में आंदोलनकारी अपनी-अपनी जातियों के नेता के तौर पर पहचाने जाएंगे। वैसे, खुद चंद्रशेखर भी स्थानीय स्तर पर बलिया में चुनाव जीतने के लिए इसी गोलबंदी की राजनीति का सहारा लेते रहे। जातीय गोलबंदी को और आक्रामक रूप कांशीराम ने दिया। उनका नारा था, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ यह नारा लोहिया और जयप्रकाश के नारों से आक्रामक साबित हुआ। यह समझ नहीं आता कि जातीय आधार पर हिस्सेदारी बढ़ाने की आक्रामक मांग करना और जाति तोड़ना- दोनों एक साथ कैसे संभव है?
उलटबांसी का विस्तार
जातीय जनगणना की मौजूदा मांग भी इसी उलटबांसी का विस्तार है। जाति जनगणना के लिए तर्क दिया जाता है कि जिस जाति की जितनी संख्या होगी, उसे उतनी हिस्सेदारी देने की योजना बनेगी। केंद्रीय सूची में पिछड़ी जातियों की कुल संख्या 2633 है। रोहिणी आयोग के अनुसार, इनमें से करीब 1000 जातियों के किसी भी व्यक्ति को मंडल आयोग के मुताबिक आरक्षण का लाभ अब तक नहीं मिल सका है। शायद यही वजह है कि बिहार का माली समाज जाति जनगणना की मांग के खिलाफ खुलकर मैदान में उतर आया है। जाति जनगणना पर क्या फैसला होगा, यह तो भविष्य की बात है, लेकिन यह तय है कि अगर जाति जनगणना हुई तो इससे कुछ लोहियावादी दलों को फायदा जरूर होगा। यह भी सच है कि इससे जो लहर उठेगी, उसे संभाल पाना आसान नहीं होगा। अतीत के अनुभव तो यही बताते हैं।
सौजन्य – नवभारत टाइम्स