जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां मुखड़ा शैलेंद्र ने राज कपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर के लिए लिखा था। लेकिन यह पंक्ति कितनों का जीवन दर्शन बन जाएगी, इसका अंदाज शायद न राज साहब को रहा होगा और न शैलेंद्र को। नंदादेवी कुंवर जैसों ने तो इसे सचमुच मानीखेज बना दिया। नेपाल के सुदूरपश्चिम सूबे में अछाम जिले के एक गरीब परिवार में पैदा नंदा महज 13 साल की थीं, जब उनकी शादी लक्ष्मण कुंवर से कर दी गई। उन्होंने इसका कोई विरोध नहीं किया, क्योंकि तब समाज का यही दस्तूर था। लड़कपन ने ठीक से दामन भी न छोड़ा था कि नंदा खुद मां बन गईं। चंद वर्षों के भीतर ही उनकी चार संतानें हुईं। नंदा और लक्ष्मण का अब एकमात्र लक्ष्य परिवार का भरण-पोषण था। दोनों काफी मेहनत करते, लेकिन छह सदस्यों के परिवार का गुजारा बहुत मुश्किल से हो पाता। उस पर सबसे छोटी बेटी लकवाग्रस्त पैदा हुई थी। देखते-देखते बच्चे बडे़ होने लगे। उनकी जरूरतें भी बढ़ रही थीं, मगर कमाई बढ़ने के आसार नहीं नजर आ रहे थे। पति-पत्नी ने जगह बदलने का फैसला किया और साल 1995 में वे रोजगार की तलाश में कैलाली आ गए। कैलाली नेपाल का एक बड़ा जिला है। उम्मीद थी कि यहां जिंदगी कुछ आसान हो जाएगी। मगर यहां आए भी काफी दिन हो चले थे, हालात जस के तस बने हुए थे। पति जब भी नेपाल से बाहर निकलने की बात करते, नंदा छोटे-छोटे बच्चों का हवाला देकर उन्हें रोक लेतीं। इस तरह तीन साल और बीत गए। आखिरकार बीवी-बच्चों की बढ़ती तकलीफों से आहत होकर एक दिन लक्ष्मण कुंवर ने भारत का रुख कर लिया। पुणे में उन्हें जल्द ही चौकीदारी का काम मिल गया। वह हर महीने नंदा को कुछ पैसे भेजने लगे थे। पति के भारत आ जाने के बाद नंदा के लिए जिंदगी अधिक चुनौती भरी हो गई थी। वह कैलाली में ही मधुमालती सामुदायिक वन के करीब एक झोंपड़ी में परिवार के साथ रहने लगी थीं। वहां पहुंच उन्होंने मन ही मन तय कर लिया था कि अब जगह नहीं बदलेंगे। यहीं पर जिएंगे। धीरे-धीरे वह सामुदायिक वन प्रबंधन समिति की सक्रिय सदस्य बन गईं। दरअसल, वन नंदादेवी जैसे लोगों की जिंदगी में हमेशा उम्मीद बनाए रखते हैं। वनाश्रित परिवार न सिर्फ इन जंगलों से मवेशियों के लिए चारा और जरूरत की लकड़ियां पाते हैं, बल्कि इनसे हासिल मौसमी फल बेचकर घर-परिवार पालते रहे हैं। इसलिए वनों के साथ इनका रिश्ता काफी प्रगाढ़ होता है। मधुमालती सामुदायिक वन लगभग 17.5 हेक्टेयर में फैला हुआ है, लेकिन समाज के लालची तत्वों की निगाह न सिर्फ इसके अन्य संसाधनों पर, बल्कि इसकी जमीन पर भी थी। वे आहिस्ता-आहिस्ता इसके अतिक्रमण में जुटे हुए थे। नंदादेवी जब मधुमालती वन प्रबंधन समिति की अध्यक्ष बनीं, तब उन्होंने इस वन से जुडे़ कई बड़े काम किए। सबसे पहले उन्होंने खाली जगहों पर खूब सारे पौधे लगवाए। नई-नई प्रजाति के पक्षियों और जानवरों का बसेरा बनवाया। फिर उन्होंने महसूस किया कि चूंकि यह वन संरक्षित नहीं है, इसीलिए जंगली जानवर आस-पास के गांवों में घुस आते हैं। नंदादेवी ने लोहे की बाड़ लगाकर इसे संरक्षित करने का फैसला किया। वन, वनोपज और वन्य-जीवों के हक में यह काफी अहम फैसला था, मगर लकड़ी तस्करों और भू-अतिक्रमणकारियों को यह नागवार गुजरा। एक सुबह जब कुछ लोग जंगल की जमीन अपने खेत में मिलाने की कोशिश कर रहे थे, नंदा ने उनका साहसपूर्वक विरोध किया। अतिक्रमणकारियों ने धारदार हथियारों से उन पर हमला बोल दिया। नंदा के दोनों हाथ बुरी तरह जख्मी हो गए। उनकी चीख-कराह सुन पड़ोसी दौड़कर पहुंचे, तब तक नंदा बेहोश हो चुकी थीं। उन्हें फौरन काठमांडू ले जाया गया। डॉक्टरों ने काफी मशक्कत की। दोनों हाथ के ऑपरेशन हुए, मगर मेडिकल टीम एक हाथ न बचा सकी। इस हमले ने शरीर के साथ-साथ मन को भी घायल कर दिया था। खासकर नंदा के बच्चे बुरी तरह भयभीत हो गए थे। मां पर इस्तीफे के लिए उनका दबाव बढ़ता गया। अंतत: नंदा ने इस्तीफा दे दिया। लेकिन इस बीच वन के प्रति उनकी निष्ठा और उनके साथ हुए हादसे की खबर नेपाल भर में फैल गई थी। सरकार उनके साथ खड़ी हुई, बल्कि ‘ऑर्किड’ की एक दुर्लभ किस्म की खोज करने वाले वनस्पति विज्ञानियों की सिफारिश पर इसका नाम नंदादेवी कुंवर पर ‘ओडोंचिलस नंदेई’ रखा गया। मधुमालती सामुदायिक वनक्षेत्र का नाम भी ‘मधुमालती नंदादेवी सामुदायिक वन’ कर दिया गया। तब अभिभूत नंदादेवी के अल्फाज थे, ‘मेरे प्रति समुदाय के लोगों ने जो विश्वास जताया, इसी के कारण मैं मधुमालती से कभी दूर न जा सकी। मैं इस वन से हमेशा प्यार करती रहूंगी।’ कई सम्मानों से पुरस्कृत नंदा के योगदान को विश्व बैंक ने भी सराहा। आज जब उत्तराखंड में जंगल धधक रहे हैं, तब हमें नंदादेवी सरीखे लोगों की कमी शिद्दत से महसूस होती है। प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह