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• Tue, 13 Apr 2021 10:29 am IST


दर्दनाक वक्त की वापसी


कोरोना के शिकार लोगों की तादाद एक बार फिर अपना ही कीर्तिमान हर रोज भंग करने पर आमादा है। पिछले दिनों महाराष्ट्र के कुछ अस्पतालों से विचलित करने वाली कुछ ऐसी तस्वीरें वायरल हुईं, जिन्हें देखकर समूचा देश दहल गया। कल कहीं हमारी बारी तो नहीं? तय है, दर्दनाक दिन लौट आए हैं। 
कोविड-19 का दूसरा प्रहार पहले से कहीं अधिक मारक है। आप पिछले वर्ष के इन दिनों को याद करें। हर ओर लॉकडाउन था। अप्रैल, 2020 में कुलजमा संक्रमितों की संख्या 33 हजार ही थी, पर खौफ इतना कि लोग पैदल ही हजारों किलोमीटर दूर स्थित अपने गांवों की ओर लौट चले थे। उन गांवों की ओर, जिन्हें वे कभी रोजी-रोटी की तलाश में कहीं पीछे छोड़ आए थे। एक एहसास के अलावा उनका वहां कुछ नहीं था, पर अपनों ने उन्हें परायों से ज्यादा दर्द दिए। यही वजह है, पहला मौका मिलते ही वे फिर लौट लिए। हालांकि, जलावतनी उनका आज भी पीछा नहीं छोड़ रही। वजह साफ है। गत 9 अप्रैल को यह आंकड़ा डरावनी सीमाओं को भी लांघ गया था। शुक्रवार को 1,45,384 लोग आधिकारिक तौर पर इस संक्रमण के शिकार पाए गए। मरने वालों की तादाद भी 794 रही। हम किसी और क्षेत्र में न सही, पर इस मामले में तो अमेरिका को भी पीछे छोड़ चुके हैं। अगर यही हाल रहा, तो हो सकता है कि मृतकों के मामले में शीर्ष पर चल रहा ब्राजील भी हमसे पीछे रह जाए। हालात इतने बदतर हैं कि महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात और छत्तीसगढ़ ने अपना पुराना रिकॉर्ड तोड़ दिया है। दिल्ली, पंजाब उनसे बस जरा-सा पीछे हैं। सुकून की बात बस इतनी है कि पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और जम्मू-कश्मीर अभी भी अपने उच्चतम संक्रमण आंकडे़ से काफी पीछे हैं। ओडिशा और असम की संक्रमण दर तो उनके अधिकतम स्तर के मुकाबले 10 फीसदी से भी कम रिकॉर्ड की जा रही है। क्या यह भला एहसास बहुत देर तक टिक पाएगा?  बताने की जरूरत नहीं कि पश्चिम बंगाल में अभी चुनाव चल रहे हैं। वहां सभी शीर्षस्थ नेताओं की रैलियां हो रही हैं, जिनमें भारी भीड़ कोरोना प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ाती दिखती है। असम में इसी हफ्ते खत्म हुए चुनाव से पहले ऐसा ही हाल था। सवाल उठता है कि जनता के हित की दावेदारी करने वाले पक्ष-विपक्ष के इन नेताओं ने जान-बूझकर मतदाताओं को इस खतरे में क्यों डाला? एक-दूसरे को जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाने वाला हमारा राजनीतिक वर्ग इतना संवेदनहीन क्यों है?

यह सही है कि देश के आठ राज्यों से 80 प्रतिशत मरीज आते हैं, पर यह भी सच है कि जब हवाई, रेल और सड़क यातायात जारी हों, तब वहां से संक्रमण के अन्य जगह फैलने की आशंका से कदापि इनकार नहीं किया जा सकता। आप याद करें, पिछले वर्ष वुहान को अगर समय रहते अंतरराष्ट्रीय हवाई उड़ानों से अलग-थलग कर दिया गया होता, तो दुनिया इस महासंकट में न फंसती। क्या अपने देश में भी कुछ दिनों में यात्रागत निषेध लागू किए जाएंगे? सरकारें चिंतित हैं, पर उनकी मजबूरी है। पिछले वर्ष के 68 दिन लंबे लॉकडाउन ने देश की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है। अब अगर दोबारा लंबा लॉकडाउन लगा, तो हालात और दुरूह हो सकते हैं। यही वजह है कि मुंबई में रात्रि कफ्र्यू लगाते वक्त उद्धव ठाकरे ने कहा था कि हमें इससे भी कडे़ कदम उठाने पड़ सकते हैं। वह जैसे लोगों को चेता रहे थे, भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, कौन जाने? फिलहाल दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तर प्रदेश सहित तमाम राज्यों के शहरों में रात्रि कफ्र्यू या साप्ताहिक बंदी का एलान किया गया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को रात्रि कफ्र्यू के विकल्प पर गौर फरमाने को कहा है। लगभग समूचा मध्य प्रदेश लॉकडाउन की चपेट में है। यह सिलसिला आने वाले दिनों में और जोर पकड़ सकता है। सरकारों की एक दिक्कत यह भी है कि जनता-जनार्दन अब बंदिशें मानने को तैयार नहीं। बिहार सरकार ने 11 अप्रैल तक सभी स्कूल-कॉलेज, कोचिंग संस्थान बंद करने का निर्णय किया था। पिछली 5 अप्रैल को जब सासाराम में पुलिस दल कोचिंग संस्थानों को बंद कराने पहुंचा, तो छात्रों ने उन पर हमला बोल दिया। सैकड़ों छात्रों की भीड़ कलक्ट्रेट में घुस गई। उनका आरोप था कि चुनावी रैलियों से अगर कोरोना नहीं फैलता, तो हमारी पढ़ाई से कैसे फैल सकता है? अगले ही दिन पंजाब में होटल, रिजॉर्ट और रेस्तरां मालिक प्रदर्शन करते दिखाई पडे़। एक रिजॉर्ट के मालिक कंवरजीत सिंह का कहना था- ‘यदि सरकार अपना अस्तित्व बचाने के लिए राजनीतिक रैलियां कर सकती है, तो फिर हम अपना वजूद बचाने के लिए व्यापार क्यों नहीं कर सकते?’ कोई आश्चर्य नहीं कि बडे़ शहरों से श्रमिकों का पलायन पुन: शुरू हो गया है। मुंबई, बेंगलुरु और दिल्ली से बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश पहुंचने वाली सभी ट्रेनें खचाखच भरी हैं। जिन्हें जगह नहीं मिलती, वे सड़क परिवहन का सहारा ले रहे हैं। इस बार बस इतनी गनीमत है कि गांव वालों ने उनके लिए द्वार बंद नहीं किए। आने वालों से बस इतनी उम्मीद की जा रही है कि कुछ दिन वे खुद को अलग-थलग कर लें। सवाल उठता है कि क्या यह नेकनीयती आगे भी जारी रहेगी? उधर, फैक्टरी मालिकों के चेहरों पर हवाइयां उड़ी हैं। उन्हें लगता है कि श्रमिकों के पलायन से उनका उत्पादन फिर से बाधित हो जाएगा। यही नहीं, कार्यबल के महंगा होने का भी भय सता रहा है। तय है, महंगाई, बेरोजगारी और बदहाली का दूसरा दौर हमारे दरवाजे खटखटा रहा है। सवाल उठता है कि ऐसे में क्या किया जाए? सरकार ने पाबंदियों के अलावा टीकाकरण अभियान तेज करने का फैसला किया है, पर इसकी अपनी सीमाएं हैं। टीका कंपनियों और सरकारों की तमाम कोशिशों के बावजूद टीकाकरण के शुरुआती तीन महीनों में सिर्फ तीन राज्य ऐसे हैं, जो अपनी पांच से साढे़ पांच फीसदी आबादी को टीका लगा सके हैं। ये हैं- केरल, गुजरात और छत्तीसगढ़। देश में सर्वाधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि उनसे पीछे चल रहे हैं। इसके बावजूद राजनेता एक-दूसरे पर आरोपों की बौछार से बाज नहीं आ रहे। कोरोना के टीकों के वितरण पर सवाल उठाए जा रहे हैं। यही वजह है कि गुरुवार की शाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद कमान संभाल ली। उन्होंने मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की, पर क्या इससे राजनीति खत्म, काम शुरू का दौर आरंभ हो सकेगा? याद रखिए, यदि कोरोना से बचना है, तो हमें मास्क, शारीरिक दूरी, स्वच्छता और संतुलित खान-पान का ख्याल रखना ही होगा। यदि आप इसके लिए भी सरकारी इमदाद या पुलिस के डंडे की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तो गलती कर रहे हैं। 

सौजन्य - हिन्दुस्तान