अभी कुछ दिन पहले एक नई मूवी का विज्ञापन देखा, जो जल्द रिलीज होने वाली है। नाम है सर मैडम सरपंच। इस सामाजिक व्यंग्य में विदेश से आई महिलाओं की कहानी कही गई है, जो गांव की सरपंच बनकर लौटीं। फिल्म में तो राजनीति के अलावा अन्य कुरीतियों पर व्यंग्य कसा ही गया होगा, साथ ही इसके टाइटल में आज के कथित प्रोग्रेसिव समाज की झलक मिल जाती है।
हाल ही में ओटीटी पर दिल्ली क्राइम वेब सीरीज में पुलिस अफसर बनीं शेफाली शाह ने दमदार रोल किया है। वह अपने शानदार काम की वजह से कामयाब अफसर हैं, लेकिन उन्हें ऑफिस के सभी लोग मैडम सर कहकर बुलाते हैं। एक और मूवी सोनी में भी महिला पुलिस अफसर को उनके मातहतों द्वारा मैडम सर कहकर संबोधित किया गया। कई अदालतों में महिला जजों को सर कहकर संबोधित किया जाता है। आपने भी अपने आसपास ऐसा देखा सुना होगा। कभी सोचा है कि लेडी बॉस को सिर्फ मैडम कहकर क्यों नहीं बुला सकते? अजी, मैडम के साथ सर लगाकर उस ओहदे में दम आ जाता है। ये जवाब अक्सर कइयों को कहते सुना है। मैडम भले ही काम में शानदार क्यों ना हों, भले ही उन्होंने उस पद तक पहुंचने के लिए कितने ही पुरुषों को पछाड़ा हो, लेकिन फिर भी जब वह काम हाथ में लेंगी, तो स्टाफ के मुंह से सिर्फ मैडम नहीं निकलेगा। मैडम सर या सर मैडम बोलने के बाद ही उन्हें चैन आएगा।
एक तरफ हम खुश होते हैं कि महिलाओं को बराबर का दर्जा देने के लिए हमारा समाज, सरकारें, कंपनियां कितना कुछ कर रही हैं और उसी का नतीजा है कि महिलाएं आज राजनीति से लेकर पुलिस बल, कोर्ट, अस्पताल, कॉरपोरेट ऑफिस और यहां तक कि सेना में भी हैं। उन्हें बराबरी का दर्जा देने की नीयत से कई जगह रिजर्वेशन है, लेकिन हम आज भी इस सच को दिल से कबूल नहीं कर पाए हैं। यही वजह है कि हम ऊंचे पद पर बैठी महिला को मैडम कहने के बजाय या तो सर कहने लगते हैं, या मैडम सर या फिर सर मैडम। महिलाओं को भी लगता है कि सर के नाम से संबोधन होने पर ही उन्हें सीरियसली लिया जाता है। शायद यही वजह है कि ऐसे स्टाफ को टोकने के बजाय सर मैडम या मैडम सर पुकारे जाने पर महिलाएं चुप रह जाती हैं। हालांकि पिछले साल फरवरी में दिल्ली हाई कोर्ट में एक सुनवाई के दौरान एक वकील ने जज रेखा पल्ली को सर कहकर संबोधित किया, तो जज ने उन्हें फौरन टोका कि मैं सर नहीं मैडम हूं, मुझे देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं। इस पर वकील का कहना था कि सर का संबोधन जज की कुर्सी के लिए था न कि उनके लिए। इस पर जज का कहना था कि फिर तो और गलत कहा आपने, क्योंकि इतने सालों तक भी आप अगर यही मानते हैं कि यह कुर्सी सिर्फ सर की हो सकती है मैडम की नहीं, तो यह काफी अफसोसनाक बात है।
जी हां, सारी गड़बड़ इस सोच की ही है। इसे पैट्रिआर्की सोच का नतीजा कहते हैं कि जहां कुछ पुरुष इस बात को कबूल करने के लिए प्रोग्राम्ड ही नहीं होते कि जब उनके गांव घरों की महिलाएं घर का काम, चूल्हा चौका करती हैं और उनके इशारों पर उठती बैठती हैं तो फिर ऑफिसों में वह उनकी बॉस कैसे हो सकती हैं। वे उनके ऑर्डर कैसे ले सकते हैं? काम ठीक से न करने पर महिला बॉस की डांट खाना उनके मेल ईगो को ठेस पहुंचाता है और यही वजह है कि ऊंचे पद पर बैठी महिलाओं का या तो मजाक उड़ाया जाता है, चरित्र पर उंगलियां उठाने में देर नहीं होती और सामने बातचीत करनी हो, तो मैडम के बजाय सर मैडम या मैडम सर मुंह से निकलता है। क्योंकि मैडम के ऑर्डर लेना तो उन्हें सिखाया ही नहीं गया, अब तक तो अगर मजबूरी में महिला बॉस बन ही गई हैं, तो उन्हें सर बोलने लगे ताकि ईगो को कम ठेस लगे। यही वजह है कि कई बार ऊंचे पदों पर बैठी महिलाओं को अपना दबदबा बनाने के लिए अपने हाव भाव में बदलाव करने पड़ जाते हैं। जैसे अधिकतर अपने लंबे बाल कटवा कर बॉयकट कर लेती हैं, साड़ी, चूड़ी बिंदी के बजाय पैंट, ट्राउज़र पहनने लगती हैं, एग्रेसिव टोन में बोलने लगती हैं कि लोग उन्हें कमजोर न समझें, सीरियसली लें और उन्हें घूरने के बजाय काम पर ध्यान दें। हो सकता है कि सर बोलने के पीछे ऐसे पुरुषों की इंटेशन गलत न हो, मगर क्यों न हम अपनी बोलचाल की भाषा में ऐसा बदलाव लाएं कि महिलाओं को अपने में ये बदलाव न लाने पड़ें। क्या आपको नहीं लगता कि क्या हमारी सोसायटी महिला बॉस के आगे ऐसा मामूली बदलाव ला सकती है, ताकि उसे ये सब न करना पड़े?
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स