ऑस्कर की ‘श्रेष्ठ इंटरनैशनल फीचर फिल्म’ श्रेणी के लिए भारत से तमिल फिल्म ‘कुलंगल’ (Pebbles) भेजी जाएगी। इसका शाब्दिक अर्थ है- कंकड़। फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया की इस घोषणा के बाद मीडिया और सोशल मीडिया में विमर्श और विवाद चल रहा है। विवाद का कारण निर्णायक समिति के एक सदस्य इंद्रदीप दासगुप्ता का बयान है, जिसमें उन्होंने ‘सरदार उधम’ को न भेजने का कारण बताया है। उनका कहना है, ‘…इसमें ब्रिटिश के खिलाफ हमारी नफरत दिखाई गई है। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में इस नफरत को बनाए रखना सही नहीं है।’
पहले भी हुए हैं विवाद
अधिकांश आलोचकों का मानना है कि इंद्रदीप दास गुप्ता का तर्क अनुचित है और इस आधार पर ‘सरदार उधम’ को ऑस्कर में न भेजना गलत है। यह कहीं न कहीं ‘साम्राज्यवादी हैंगओवर’ है। वास्तव में दासगुप्ता की कही गई बात की संदर्भहीन व्याख्या की जा रही है। ‘ब्रिटिश के खिलाफ’ शब्दों से अधिकांश को यही लगता है कि यह बयान राष्ट्रीय दर्प और एक क्रांतिकारी के योगदान को नजरअंदाज करता है। बहस में निर्णायक समिति के एक और सदस्य सुमित बसु के बयान पर गौर ही नहीं किया गया। इस पर भी बात नहीं हो रही है कि ऑस्कर पुरस्कार में भेजने के लिए चुनी गई तमिल फिल्म ‘कुलंगल’ कैसी है।
‘न्यू इंडिया’ के राष्ट्रवाद और राष्ट्र गौरव के इस दौर में यकीनन इंद्रदीप दासगुप्ता का बयान चलन और फैशन के अनुसार नहीं है। तर्क और व्याख्या करने वालों का ध्यान चुनाव की प्रक्रिया, निर्णायक समिति की सर्वसम्मति और ऑस्कर के लिए भेजी जाने वाली फिल्मों की वास्तविकता पर नहीं है। 1957 से इस श्रेणी में भारतीय फिल्में भेजी जा रही हैं। बीच में अलग-अलग सालों में सात बार ऐसे मौके आए, जब कोई भी फिल्म नहीं भेजी गई। अब तक केवल तीन भारतीय फिल्में नामांकन सूची तक पहुंच पाईं। ये फिल्में हैं ‘मदर इंडिया’ (1958), ‘सलाम बॉम्बे’ (1989) और ‘लगान’ (2002)। अभी तक एक बार भी भारतीय फिल्म पुरस्कृत नहीं हुई है। हम एक किस्म की ऑस्कर ग्रंथि और हीन भावना के शिकार हैं। हर साल ऑस्कर के लिए एक फिल्म चुनी जाती है। उसे लेकर निर्णय आने तक चर्चा होती रहती है।
अमेरिका में ऑस्कर के निर्णायकों के बीच फिल्म के प्रचार और लॉबीइंग के लिए धन जुटाया जाता है। स्वतंत्र निर्माताओं के पास इसके लिए पर्याप्त धन नहीं रहता। यह राशि अनेक बार फिल्म की लागत से ज्यादा होती है। फिल्म के निर्माता-निर्देशक लगभग साढ़े तीन-चार महीनों के इस अभियान में व्यस्त रहते हैं और नतीजा अभी तक निल बटे सन्नाटा ही आया है। बेशक इंटरनैशनल प्रतियोगिताओं में भारतीय फिल्में भेजी जानी चाहिए, इसी सोच के तहत फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया चुनाव के लिए आई तमाम भाषाओं की फिल्मों में से श्रेष्ठ फिल्म का चुनाव करता है। ध्यान रहे, देश की सभी श्रेष्ठ फिल्मों पर विचार नहीं होता। जो निर्माता इस चुनाव के लिए अपनी फिल्में भेजते हैं, उनमें से ही एक का चुनाव किया जाता है। कई बार बेहतरीन फिल्मों के निर्माता-निर्देशक इसे व्यर्थ का शगल मानकर अपनी फिल्म ही नहीं भेजते।
सौजन्य से - नवभारत टाईम्स