बौद्ध धर्म में कहा गया है- संसार दुखमय है, जहां देखो, दुख ही दुख है और जीवन दुखों से भरा पड़ा है। यहां जो भी कुछ उपलब्ध है, वह आज नहीं तो कल दुख के रूप में प्रकट हो ही जाएगा। इस दुख का कारण जगत के प्रति व्यक्ति की तृष्णा है। यदि व्यक्ति चाहे तो इस दुख का निवारण कर सकता है। दुख को दूर करने के लिए मध्यम मार्ग के उपाय हैं। संसार के पदार्थों की तरफ अनासक्ति ही दुख से छुटकारा दिला सकती है। संसार के प्रति तृष्णा को जब तक त्याग नहीं दिया जाता, तब तक दुख जीवन का हिस्सा बना रहता है। इसलिए बौद्ध धर्म में संन्यास की परंपरा में सब कुछ छोड़कर ध्यान को प्राप्त होना बताया है।
जिन कारणों से दुख उत्पन्न होता है, उन कारणों को यदि नहीं छोड़ा तो जीवन भर दुख हमारे साथ परछाईं की तरह खड़ा ही रहेगा। ऐसा भी होता है कि साधना में दुख केंद्र बन जाता है और दुख से ही ऊपर उठने के उपाय करते-करते व्यक्ति अपने जीवन को दुखों से भर लेता है, और धन, परिवार, पद, कीर्ति, प्रतिष्ठा जो भी पास है उसमें दुख ढूंढना आरंभ कर देता है। जबकि त्यागना आसक्ति को था और त्याग वस्तुओं का कर देता है। यूं तो संसार दुख रूप है, यह बात गीता और योगसूत्रों में भी कही गई है, लेकिन दुख वहां केंद्र रूप में नहीं है। वेदांत में अपने आत्मभाव में आना मुख्य है और बौद्ध में दुख से निवृत्ति मुख्य है। इसलिए वेदांत आत्मा के इर्द-गिर्द व्यक्ति की चेतना को स्थिर करने की साधना है और बौद्ध धर्म दुख से छुटकारा पाने की साधना है।
सनातन धर्म में धन, पद, परिवार आदि सब छोड़ने के बाद ही संन्यास प्राप्त होता है ऐसा जरूरी नहीं, बल्कि कर्मों के फलों का संन्यास करने वाला संन्यासी कहलाता है। फिर जो प्रारब्ध से हमारे पास है, उसको स्थूल रूप से नहीं त्यागा जाता, बल्कि हमारे और वाह्य विषय के बीच का संबंध टूट जाता है। इस अनासक्त भाव को संन्यास कहते हैं। संन्यास केवल जंगल जाकर, कपड़े बदल लेना नहीं है। बल्कि मन में जो संशय हैं, यह उनका नाश करना है। बौद्ध धर्म में संन्यास सब छोड़ कर ही लिया जाता है, लेकिन सनातन धर्म में सब रहते हुए आप संन्यासी की तरह जीवन जी सकते हैं। अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए आप अध्यात्म पथ पर आगे बढ़ सकते हैं, जैसे श्रीकृष्ण, राम, राजा जनक आदि ने किया। इसलिए यहां राजा जनक का उदाहरण बार-बार आता है। राजा जनक एक अवस्था है, जिसमें राजा होते हुए भी आप संन्यासी का जीवन जी सकते हैं।
बौद्ध और हिंदू धर्म दोनों ही मार्ग अपने-अपने स्थान पर महत्व रखते हैं। जिसको जहां रुचि लगे, वह उस मार्ग पर अपनी आध्यात्मिक यात्रा का आरंभ कर सकता है। दुख को याद करते रहने से दुख से ऊपर उठना सभी के लिए आसान नहीं है, लेकिन अपने स्वरूप में टिक जाने से दुख से ऊपर अपने आप उठा जा सकता है। जीवन मिला है उत्साह, उमंग, उल्लास, आनंद और नृत्य के लिए! उसको उसी रूप में जीकर जीवन को पूर्णता से भर देना है।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स