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• Wed, 6 Dec 2023 11:06 am IST


शादियां और अरमान


अपने देश में शादी कई मायनों में जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। लड़के और लड़की के साथ दो परिवार एक दूसरे से जुड़ते हैं। इस दिन के बाद इनकी पूरी ज़िंदगी का हर छोटा बड़ा संस्कार भी एक दूसरे से जुड़ जाता है। ऐसे में यह दिन बेहद खास होता है। दोनों तरफ के कई परिवार, यार-दोस्त, पड़ोसी और जानकार दूर-दूर से आकर एक जगह जुटते हैं और शादी के इस संस्कार के गवाह बनते हैं। तरह-तरह के रस्म-रिवाज और परंपराएं निभाई जाती हैं। नाच, गाने, दावतों और उत्सव का माहौल तीन-चार दिन चलता है। इसमें बहुत पैसा खर्च होता है। लड़का-लड़की के परिवार को तो तमाम तरह से खर्च करना ही होता है, शादी में शामिल होने वालों को भी जेब ढीली करनी होती है। कोर्ट मैरिज से अलग शादियों की बात करें तो यह खर्च एक शादी पर कम से कम 3 लाख रुपये से लेकर कई करोड़ तक में चला जाता है। इसलिए देश की इकॉनमी का एक बड़ा हिस्सा जाने अनजाने शादियों से जुड़ जाता है।

देवोत्थान एकादशी से शादियों का सीजन फिर शुरू हो गया है। पहला राउंड 14 जनवरी यानी मकर संक्रांति तक चलेगा। हाल ही में कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स ने एक अनुमान जारी किया कि इस दौरान देश में 38 लाख से ज्यादा शादियों होंगी जिनसे 4.74 लाख करोड़ रुपये से अधिक का व्यापार होगा। पिछले साल 32 लाख शादियां हुईं जिन पर 3.75 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए। यह आंकड़ा यह बताने के लिए काफी है कि अपने यहां क्यों बच्चे के पैदा होते ही उसकी शादी का खर्च जोड़ना शुरू हो जाता है। एक मिडिल क्लास फैमिली बच्चे की पढ़ाई-लिखाई के लिए तो निवेश करती ही है, उसकी शादी को लेकर भी सोचना शुरू कर देती है। मेरी जानकारी में न जाने कितने लोग हैं जिन्होंने लड़की होने पर सुकन्या समृद्धि योजना के खाते यही सोचकर खुलवाए हैं।

शादी में इतना खर्च क्या वाकई जरूरी है? यह सवाल इतना असहज सवाल है कि पूछने पर ज्यादातर लोग आपके गले ही पड़ेंगे। उनकी नजर में यह एकदम नीरस और फालतू का सवाल है। वे कहेंगे कि जीवन का इतना बड़ा इवेंट है तो धूमधाम से क्यों नहीं होना चाहिए? वे यह नहीं मानेंगे कि इस धूमधाम का मकसद असल में हैसियत दिखाने का कभी-कभार मिलने वाला मौका है। भले ही इसके लिए उनको कर्ज क्यों न लेना पड़े। अगले दस साल चाहे उन्हें यह कर्ज उतारने में लग जाएं, लेकिन अपनी सोशल प्रेशर के चलते वे इसमें पीछे नहीं रहना चाहेंगे। इतना बड़ा बाजार, इतनी बड़ी इकॉनमी, इतने लोगों की रोजी-रोटी, इन सबके औचित्य पर सवाल उठाना मकसद नहीं हैं। इनकी अपनी अहमियत है, लेकिन एक मिडिल क्लास आदमी, जिसकी साल की बचत कभी लाख का आंकड़ा नहीं छू पाती, उसकी बात करें तो तस्वीर कुछ अलग दिखेगी।

आलीशान दावतों या लेन-देन पर खर्च होने वाली मोटी रकम की उपयोगिता पर सोचिए। ऐसे-ऐसे परिवारों को इन पर 15-20 लाख रुपये खर्च करते देखा है जिनके खुद के रोजगार की जड़ें हिली हुई थीं। हैसियत दिखाने का दबाव नहीं होता तो इस रकम का इस्तेमाल वे फ्यूचर को मजबूत करने के लिए कर सकते थे। पर उनका कहना था कि शादी रोज-रोज नहीं होती। इकलौता लड़का है, हमारे भी कुछ अरमान हैं। अरमान पूरे करने का यह तरीका कुछ बदल सकता है क्या?

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स