शनिवार को दोपहर ढले जब ये पंक्तियां लिखने
बैठा हूं, तब किसानों का ‘राष्ट्रव्यापी चक्का
जाम’ समाप्त हो चुका है।
इस दौरान कश्मीर से कर्नाटक तक धरने आयोजित किए गए। कहीं खासा, कहीं आंशिक, तो कई हिस्सों में
कोई असर नहीं दर्ज किया गया। सुकून की बात यह है कि कोई ऐसी अप्रिय घटना नहीं हुई, जिसे इतिहास अपने
बही-खाते में दर्ज कर सके। उम्मीद के अनुरूप पंजाब और हरियाणा में इसका सर्वाधिक
असर रहा।
दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड इस आयोजन से
मुक्त रखे गए थे। क्यों? किसान
नेता राकेश टिकैत ने इसकी घोषणा करते हुए कहा था कि यह गन्ने की खेती का समय है और
लोग आंदोलन के साथ अपना काम भी कर सकें, इसलिए ऐसा किया गया। इस बयान के प्रसारित
होते ही सवाल उठने लगे थे कि यह घोषणा टिकैत ने अकेले क्यों की? कायदे से तो यह बयान
संयुक्त किसान मोर्चा की प्रेस कॉन्फ्रेंस का हिस्सा होना चाहिए था। क्या
आंदोलनकारियों में पहले जैसी एकजुटता नहीं रही? हालांकि, बाद में मोर्चा के प्रवक्ता ने साफ किया कि
राकेश टिकैत ने ऐसा सबकी सहमति के साथ किया था। हमें आशंका थी कि इन प्रदेशों की
भाजपा सरकारें कुछ अप्रिय रच सकती हैं। क्या वाकई? प्रवक्ता ने यह भी
सफाई दी कि हम यह चक्का जाम इसलिए कर रहे हैं कि अभी हमारे बहुत से साथी लापता हैं
और सरकार इसका कोई संज्ञान नहीं ले रही है। उनका यह कथन शायद इस आरोप की सफाई थी
कि जब इस आंदोलन को हर तरफ से इतना समर्थन मिल रहा है, तब उसे यह नया कदम
उठाने की जरूरत क्यों महसूस हुई? इस
आह्वान के असर को ध्यान से देखने पर आप पाएंगे कि तमाम प्रदेशों में इसका कोई असर
नहीं था। ऐसे में, किसान
अपने ऊपर लगी इस तोहमत से पल्ला कैसे झाड़ेंगे कि यह एक विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र के
किसानों का अपना आंदोलन है? आज इस
आंदोलन ने 74 दिन की
उम्र पा ली। इस दौरान सरकार और किसान, दोनों ने अपने रुख में समय और हालात के
हिसाब से परिवर्तन किए। 26 जनवरी
की दिल तोड़ देने वाली घटनाएं इसका उदाहरण हैं। खुद किसान नेता इससे शर्मसार थे।
राकेश टिकैत ने गिरफ्तारी देने तक की ठान ली थी। ऐसा लगने लगा था कि आंदोलन अवसान
की ओर बढ़ रहा है। सब कुछ शांति से निपट रहा था कि अचानक सत्तारूढ़ दल के एक
विधायक वहां अपने समर्थकों के साथ पहुंच गए। उनकी नारेबाजी ने माहौल बिगाड़ दिया।
टिकैत ने भावुक होकर घोषणा की कि मैं अपने लोगों को मरने-पिटने के लिए छोड़कर नहीं
जाऊंगा और अपने गांव का जल ही ग्रहण करूंगा। यह वह लम्हा था, जिससे एक मुरझाता
आंदोलन फिर से हरिया उठा। यही नहीं, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में
असरकारी जाटों की खाप पंचायतें जैसे नींद से जाग गईं। इन दिनों आंदोलन के पक्ष में
शहर-दर-शहर किसान महापंचायतें हो रही हैं। इनमें सभी धर्मों और जातियों की समान
भागीदारी के कारण गुम हो चले सामाजिक समीकरण फिर से अंगड़ाई लेने लगे हैं। क्या
चुनावी राजनीति पर इसका असर पडे़गा? इस सवाल का जवाब उत्तर प्रदेश में शीघ्र
होने वाले पंचायत चुनावों में मिल जाएगा।
सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हुआ?
गाजीपुर में विधायक की कारगुजारी की बात तो हम कर ही
चुके हैं, पर इससे पहले भी
बहुत से लोग आंदोलनकारियों को खालिस्तानी बता रहे थे। यही नहीं, जब लाल किले पर झंडा
फहराया गया, तब कुछ
देर के लिए यह प्रवाद फैलाने की कोशिश की गई कि तिरंगे का अपमान हुआ है। ऐसा करने
वाले लोग यह क्यों नहीं सोचते कि सोशल मीडिया पर उनके दुष्प्रचार से देश में हिंसक
प्रतिक्रिया पैदा हो सकती है। इस शोर-शराबे ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान इस
ओर खींचा, जिससे रिहाना, ग्रेटा थनबर्ग, मीना हैरिस और तमाम
लोगों को हमारे अंदरूनी मामलात में दखल देने का मौका मिल गया। विदेशी जमीन से भारत
के खिलाफ साजिश रचने वाली आईएसआई हो या खालिस्तानी अथवा कोई और विद्वेषी, सबको इन अभियानों ने
अवसर प्रदान कर दिया, पर
हमारे सूरमा फिर भी नहीं रुके। हम अपने मसले खुद निपटाना चाहते हैं, तो इसका सलीका भी
सीखना होगा। इस दौरान पुलिस ने भी कुछ ऐसे काम किए, जिन्हें थोड़ा संभलकर किया जाता, तो बेहतर होता।
दिल्ली की सीमा पर जिस तरह की घेराबंदी की गई, उसने स्थानीय लोगों को कष्ट में डाल दिया
है। लोग काम पर जाने के लिए मीलों का चक्कर लगाने पर विवश हैं। कारखानों में
मजदूरों और माल की आवाजाही में गिरावट आई है। एंबुलेंस तक को रास्ता हासिल नहीं
है। बाजार में सामान की किल्लत है और महंगाई बढ़ गई है। आसपास के इलाकों में लंबे
समय से इंटरनेट बंद है। इस पाबंदी से वे बच्चे नहीं पढ़ पा रहे, इम्तिहान जिनके सिर
पर हैं। आंदोलनकारी भी पानी और शौचालय तक के लिए जद्दोजहद पर मजबूर हैं। यही नहीं, रिपोर्टिंग के दौरान
दो स्वतंत्र पत्रकारों की गिरफ्तारी ने भी पुलिस की खासी किरकिरी कराई। अगर उन्हें
न गिरफ्तार किया जाता, तो उनका
कहा-सुना कुछ लोगों तक सिमटकर रह गया होता। इसी तरह पांच वरिष्ठ संपादकों के खिलाफ
‘राजद्रोह’ का मामला दर्ज करने
के बजाय यदि उन्हें परंपरानुसार नोटिस या खंडन भेजे जाते, तो बेहतर होता। भला
इन संपादकों और सभी धरनारत किसानों को कौन राष्ट्रद्रोही मान लेगा?
अब राजनीति पर आते हैं। गुजरी 26 जनवरी की घटनाओं से
पहले किसानों ने अपने आंदोलन से सफलतापूर्वक राजनीतिज्ञों को दूर रखा था, पर अब वे सियासत के
महारथियों से मिल रहे हैं। यह ठीक है कि उन्हें मंच से भाषण नहीं कराया जाता, पर यह भी सच है कि
राजनीति के प्रवेश ने इस मसले को उलझा दिया है। कहने की जरूरत नहीं कि आज जो
राजनेता इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं, उनमें से कई तो पहले इनका समर्थन कर चुके
हैं। राजनीति अपनी आवश्यकता के अनुसार मुखौटे बदलती रहती है। किसानों को सावधान
रहना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि कृषि क्षेत्र को सुधारों की जरूरत है और इन
कानूनों के जरिए सरकार भी यही करना चाहती थी। अगर कृषकों को यह बात समझ में नहीं आ
रही, तो सत्तानायकों को
उन्हें आश्वस्त करने के कुछ नए उपाय खोजने होंगे। आज जो लोग सड़कों पर बैठे
हैं, उनमें से अधिकांश
लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ गठबंधन के साथ खड़े थे। उनके आस-विश्वास का मान तो रखना
ही होगा। हमेशा की तरह आज भी मेरा यही अनुरोध है, लंबे आंदोलन कभी-कभी बड़ा अहित कर जाते हैं।
26 जनवरी की घटनाएं
इसका उदाहरण हैं।
सौजन्य से - हिन्दुस्तान