इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि राजभाषा हिंदी को लेकर स्वाधीन भारत में जब भी कोई मुद्दा उछला, प्राय: नकारात्मक ही रहा। हिंदी कभी अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के विरोध में निशाने पर रही तो कभी उसे दक्षिणी राज्यों में कथित तौर पर थोपे जाने की प्रतिक्रिया में किनारे करने की कोशिश हुई। वह कभी सकारात्मक राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पाई। ऐसे माहौल में अगर पश्चिम बंगाल के चुनावी माहौल में हिंदी और हिंदीभाषियों के मुद्दे केंद्र में हैं तो कहा जा सकता है कि हिंदी को लेकर कम से कम गैर हिंदीभाषी क्षेत्रों में जो अलहदापन का भाव था, उसमें बदलाव आ रहा है।
यह कैसी भद्रता
बंगाली समाज का जैसे ही जिक्र आता है, भद्र विशेषण उससे अपने आप जुड़ जाता है। इसके बावजूद यहां का समाज हिंदीभाषियों को लेकर खास उदार नहीं रहा। बांग्ला समाज बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश वालों को देसवाली या हिंदुस्तानी कहता रहा हैं। ये दोनों ही शब्द हिंदीभाषी समाज को कमतर दिखाने की भद्र समाज की अवचेतन कोशिश का हिस्सा रहे हैं। इस भाव की वजह निश्चित तौर पर हिंदीभाषी इलाकों की गरीबी और बदहाली में रही है। उन्नीसवीं सदी में ‘अग्रीमेंट’ के तहत अंग्रेजों ने मॉरिशस, फिजी, गुयाना, ट्रिनिडाड आदि जगहों पर जिन्हें भेजा था, वे या तो बिहार के थे या फिर पूर्वी उत्तर प्रदेश के। गिरमिटिया नाम से मशहूर इन मजदूरों में पश्चिम बंगाल का शायद ही कोई रहा हो। एक बार मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने लिखा था कि हिंदीभाषी समाज के लोग या तो दरबान बनते हैं या रसोइया। कहना न होगा कि बंगाल की फिल्मों में भी हिंदीभाषी किरदार प्राय: इन्हीं रूपों में दिखते रहे हैं। पश्चिम बंगाल में राजस्थान के भी हिंदीभाषी हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में मारवाड़ी कहा जाता है। बांग्ला समाज उन्हें बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों जैसा कमतर नहीं मानता। वैसे मारवाड़ी समाज भी अपने को दूसरे हिंदीभाषियों से अलग मानता है।
हालांकि बीजेपी के उभार के बाद बंगाल में हिंदीभाषी वोट बैंक की अहमियत बढ़ी है। याद कीजिए 2011 के विधानसभा चुनाव को। तब ममता बनर्जी का ‘मां, माटी और मानुष’ पर जोर था। इसी नाम से उनका एक कविता संग्रह भी है। मां, माटी और मानुष से उनका मतलब बंगाल की मिट्टी और मनुष्य से था। लेकिन जब से यह स्थापित हुआ है कि पश्चिम बंगाल में हिंदीभाषी भी मजबूत वोटबैंक बन चुके हैं, ममता बनर्जी की भाषा बदल गई है। वह भी अब हिंदीभाषियों पर फोकस कर रही हैं। हिंदीभाषी इलाकों में दबदबा हासिल कर चुकी बीजेपी के लिए उन पर फोकस करना नई बात नहीं है। नई बात ममता का इन पर फोकस करना है। इसकी वजह हैं उनके चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर। प्रशांत किशोर की टीम का आकलन है कि राज्य की कम से 80 सीटें ऐसी हैं, जहां हिंदीभाषी वोटर जिसे चाहें जिता सकते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को मिली 18 सीटों के पीछे हिंदीभाषी वोटबैंक की ही भूमिका मानी गई। यही वजह है कि अब ममता भी हिंदी वालों को लुभाने की कोशिश कर रही हैं। हिंदीभाषियों के बीच उनके कविता संग्रह का हिंदी अनुवाद बांटा जा रहा है। पिछले 14 सितंबर को उन्होंने पश्चिम बंगाल हिंदी अकादमी का गठन किया, जिसका अध्यक्ष हिंदी अखबार ‘सन्मार्ग’ के संपादक विवेक गुप्ता को बनाया गया है। इसके साथ ही ममता ने अपनी पार्टी में हिंदीभाषी प्रकोष्ठ बनाया है। वह हिंदीभाषियों के हितों पर ध्यान देने का वादा भी कर रही हैं।
इससे कौन इनकार करेगा कि हिंदी की विकास यात्रा में पश्चिम बंगाल, विशेषकर कोलकाता का विशेष स्थान रहा है। कोलकाता से ही 30 मई 1826 को जुगलकिशोर शुक्ल ने हिंदी का पहला दैनिक ‘उदंत मार्तंड’ निकाला था। कोलकाता के ही यशस्वी बांग्ला और अंग्रेजी पत्रकार रामानंद चटर्जी ने ‘प्रवासी’ नामक हिंदी पत्र भी निकाला। हिंदी समाज कैसे भूल सकता है कि निराला और शिवपूजन सहाय की संपादकीय दृष्टि को प्रखर बनाने वाले हास्य व्यंग्य प्रधान पत्र ‘मतवाला’ को सेठ महादेव प्रसाद ने कोलकाता से ही प्रकाशित किया था। कोलकाता से ही 1854 में ‘समाचार सुधावर्षण’, ‘बंगदूत’ और ‘भारत मित्र’ जैसे हिंदी पत्र भी निकले। हिंदी की शुरुआती विकास यात्रा दरअसल हिंदी पत्रकारिता की विकास यात्रा है। पत्रकारिता ने ही हिंदी को मांजा और आज की हिंदी के लिए मजबूत आधार तैयार किया। लेकिन हिंदी की विकास यात्रा की चर्चा तब तक अधूरी रहेगी, जब तक 1800 में स्थापित फोर्ट विलियम कॉलेज और 1857 में स्थापित कलकत्ता विश्वविद्यालय की चर्चा न हो। फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर जनरल वैलेस्ली ने की थी। शुरू में इसका उद्देश्य भारतीय प्राच्य विद्या के अध्ययन को बढ़ावा देना था। बाद के दिनों में इसने इंडियन सिविल सेवा के लिए चुने गए अधिकारियों को स्थानीय भाषाएं पढ़ाने का भी काम किया। यहीं कार्यरत हिंदी के दो भाषा मुंशियों, मुंशी सदासुख लाल और पंडित लल्लू लाल ने हिंदू परिवारों में धार्मिक ग्रंथ की तरह पूजे जाने वाले ग्रंथों- ‘सुखसागर’ और ‘प्रेमसागर’ की रचना की।
धर्मतल्ला के मैदान में
कम लोग जानते हैं कि आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना संस्कृत में कर रहे थे। कोलकाता में अगर उनकी मुलाकात ब्रह्मसमाज के केशवचंद्र सेन से नहीं हुई होती तो शायद यह हिंदी में नहीं आती। धर्मतल्ला के मैदान में सेन ने ही उन्हें लोकभाषा हिंदी में सत्यार्थ प्रकाश को रचने का सुझाव दिया था। सिनेमा के संदर्भ में भी हिंदी और बांग्ला माटी का जुड़ाव दिखता है। प्रेमचंद की कहानियों ‘सद्गाति’और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर बांग्लाभाषी सत्यजीत रे ने जैसी कलात्मक फिल्में बनाईं, उसकी सानी हिंदी के किसी निर्माता-निर्देशक की कला में अब तक नहीं दिखती। पश्चिम बंगाल के चुनाव में हिंदीभाषी कैसी भूमिका निभाएंगे, यह तो नतीजों के बाद ही पता चलेगा, लेकिन उन्हें मिल रही तवज्जो से इतना जरूर स्पष्ट है कि भाषा को तभी महत्व मिलता है, जब उसके बोलने वाले राजनीतिक और आर्थिक रूप से मजबूत होते हैं।
सौजन्य - उमेश चतुर्वेदी