आज तोताराम दोपहर को फिर आ धमका. वैसे इस ‘धमका’ का ‘धमकी’ जैसी किसी कार्यवाही से कोई संबंध नहीं है. इसमें टेनी मिश्रा जी जैसी सुधर जाने वाली नेक सलाह जैसा भी कुछ नहीं है. वैसे इसमें कुछ संदेहास्पद हो तो भी चिंता की कोई बात नहीं हैं क्योंकि तोताराम के पास बिगड़े किसानों को अपने आप ही पहचान कर, उन पर चढ़कर सुधार देने वाली चमत्कारी जीप तो क्या, साइकल भी नहीं है.
चुनावों के समय फिर फिर चक्कर लगाने का कारण जानना चाहा तो बोला- तीन दिन से तू मेरी हर बात को उसी प्रकार टाल रहा है जैसे नरेन्द्र सिंह तोमर किसानों के मुद्दों को हर बार अगली मीटिंग पर टालते रहे. मैनें तुझे पृथिवी आकाश अम्बानी के जन्मदिन पर मुम्बई जाने को कहा, फिर विकेट (विक्की, कैटरीना का शोर्ट फॉर्म) की शादी में जाने की सलाह दी और आज सुबह देश में प्राचीन काल से अड्डा जमाये महंगाई को हटाने के लिए जयपुर में इकठ्ठा हुए कांग्रेस के लाखों कार्यकर्ताओं का सहयोग करने के लिए जयपुर जाने के लिए कहा लेकिन तूने एक भी बात नहीं मानी.
कोई बात नहीं, अब कम से कम देश का मानसिक, सामाजिक, आर्थिक सभी तरह के महायज्ञ में अपनी कुछ आहुतियाँ ही डाल दे.हमने कहा- किसी भी प्रकार का यज्ञ या अन्य पूजा-पाठ के बहाने से कुछ भी जलाया जाता है तो उससे कम या ज्यादा कार्बन का ही उत्सर्जन होता है प्रदूषण ही फैलता है. हम तो यहांतक कहते हैं कि भले चुनाव जीतने के लिए ही हो किसी को कटु बात कहकर उसका दिल जलाया जाता है तो उससे भी घृणा का प्रदूषण ही फैलता है.
बोला- यह वैसा यज्ञ नहीं है. यह तो विचारों का चिंतन का, ज्ञान का यज्ञ है जिससे भारत फिर से विश्वगुरु बन जाएगा.
ऐसा कहकर तोताराम ने अपने थैले में से कई सीडियां और एक छोटा-सा सीडी प्लेयर निकाल कर हमारे सामने रखा दिया.
हमने पूछा- क्या इनकी आहुति देनी है?
बोला- नहीं, ये मोदी जी के मन की बात की सीडियां हैं. हम दोनों चाय और नाश्ते के साथ इन्हें सुनेंगे.और देश के विकास में अपना योगदान देंगे.
हमने कहा- तोताराम, सच बताएं, जन्म से पहले पिताजी से, फिर अध्यापकों और उसके बाद इस देश में जहां-तहां कुकुरमुत्तों की तरह उग आये भगवानों से और अब नेताओं इतने भाषण सुने हैं कि अब किसी भी अच्छे बुरे भाषण से सिर दर्द होने लगता है. लगता है कि किसी दीवार से सिर भिड़ायें तो कुछ राहत मिले, सब अपने मन की बात कहते हैं. कोई हमारे मन की बात नहीं सुनता. मन की तो दूर तन की बात भी नहीं सुनता. एक उपदेष्टा थे बुद्ध. उनके उपदेश में आया एक व्यक्ति एकाग्र नहीं हो पा रहा था. बार बार आसन बदल रहा था. बुद्ध ने उसे अपने पास बुलाया, हाल चाल पूछा और फिर कहा- पहले इसे खाना खिलाओ. तभी से यह कहावत चली है-
ये ले अपनी कंठी माला
भूखे भजन न होय गोपाला.
सो जब तक कोई गारंटी नहीं मिलती, हम कुछ नहीं सुनेंगे.
बोला- कैसी गारंटी?
हमने कहा- जर्मनी में एक व्यक्ति ‘वर्क फ्रॉम होम’ कर रहा था. जब वह अपने बिस्तर से कम्प्यूटर की डेस्क तक जा रहा था तो उसे हार्ट अटक हुआ और मर गया.कोर्ट ने उस मौत हो ड्यूटी पर हुई मौत माना और उस व्यक्ति को नियमानुसार मुआवज़ा देने के आदेश दिए.
बोला- क्या मतलब?
हमने कहा- यदि हमें मन की बात सुनते हुए कुछ हो गया तो हमें भी शहीद का दर्ज़ा दिया जाए और हमारे वारिसों को आजीवन पेंशन दी जाए.
बोला- मास्टर, हद करता है. किस किस बात का मुआवज़ा चाहिए? यदि इस देश के सभी लोग तेरे जैसे होते और मैं प्रधानमंत्री होता तो अपना झोला उठाकर केदारनाथ नहीं, बल्कि किसी ऐसी जगह चला जाता जहां कोई मुझे ढूँढ़ भी न सके.
हमने कहा- केदारनाथ जाने से किसने रोका है, लेकिन याद रख यदि वहाँ तेरी गुफा सेंट्रली हीटेड नहीं हुई तो जब मई में गुफा लोगों के लिए खुलेगी तो तेरी नश्वर देह अकड़ी हुई मिलेगी फिर अगले साल अस्सी वर्ष का होने पर २०% बढ़ी हुई पेंशन पर होने वाले गर्व और गौरव को हमारे साथ सेलेब्रेट कौन करेगा?
बोला- एक चाय तो बनवा ले. चुनाव में वादों तथा गालियों की कोई दिशा, शर्म-संकोच और नियम नहीं होते वैसे ही सर्दी में चाय का की समय नहीं होता. कभी भी, कहीं भी, जहां भी मिलेगी,चलेगी. झोला उठाकर जाना केंसिल.
सौजन्य से - नवभारत टाइम्स