यह परिघटना दो साल बाद पचास वर्ष की हो जाएगी। बात 1973 की है। एक महिला अपने पति के साथ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पास चुनाव लड़ने की ख्वाहिश लिए पहुंची। उसके आत्मविश्वास से तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रभावित हुईं और कांग्रेस ने कुछ हफ्ते बाद उसे उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े जिले से विधानसभा चुनाव का टिकट दे दिया। तब तक वह नहीं जानती थी कि अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए उसे कैसी कठिनाइयों का सामना करना होगा। चुनाव प्रचार के लिए जाते समय उसे सुनिश्चित करना होता था कि उसकी जीप में सिर्फ परिवार के नौजवान अथवा बुजुर्ग ही बैठें। शाम ढलने से पूर्व उसे अपने ठिकाने पर लौट आना होता था, जहां परिजन आतुरता से उसकी प्रतीक्षा कर रहे होते। इसके बावजूद लांछनों की तपिश उसे झुलसाती चलती। महिला होने के नाते उसे बस एक सुविधा हासिल थी कि वह चुनाव प्रचार के दौरान किसी के भी घर में दाखिल हो सकती थी और पर्दानशीं महिलाओं तक अपनी बात पहुंचा सकती थी। मतदान के दिन लोगों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इस बार महिलाएं पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा अपने मताधिकार का प्रयोग कर रही हैं। वह महिला चुनाव तो न जीत सकी, पर 1952 के बाद यह पहला मौका था, जब उस सीट से कांग्रेस महिला मतदाताओं की मेहरबानी से जमानत बचाने में कामयाब हो सकी थी। पराजय के निराशाजनक माहौल में सुकून की यह अकेली निशानदेही थी। तब से अब तक वक्त काफी बदल गया है। बहुत दूर जाए बिना बिहार के चुनाव नतीजों पर नजर डाल देखते हैं। सियासी तौर पर बेहद संवेदनशील इस सूबे में जहां 54.45 पुरुष मतदाताओं ने वोट डाले थे, तो वहीं महिलाओं ने 59.69 प्रतिशत मतदान किया। यह पिछली बार से लगभग 0.79 प्रतिशत कम जरूर था, फिर भी सरकार गठन में इसका जबर्दस्त योगदान रहा। यही वजह है कि बिहार चुनाव के बाद भाजपा मुख्यालय में कार्यकर्ताओं से बात करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था- ‘बीजेपी के पास साइलेंट वोटर का एक ऐसा वर्ग है, जो उसे बार-बार वोट दे रहा है, निरंतर वोट दे रहा है।’
ऐसा इसलिए हो सका, क्योंकि 2014 में सरकार में आते ही नरेंद्र मोदी ने उज्ज्वला, घर-घर शौचालय, बैंक खाते, गर्भावस्था में मुफ्त इलाज जैसी योजनाएं लागू कीं, जो सीधे गृहणियों से ताल्लुक रखती थीं। उनकी ईमानदार और दिन-रात काम करने वाले मेहनती राजनेता की छवि का भी इसमें योगदान है। महिलाएं पिछले तमाम चुनावों में भाजपा की भरोसेमंद वोटर साबित हुई हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल का चुनाव उसके लिए अग्नि-परीक्षा साबित होने जा रहा है।
ऐसा कहने की सबसे बड़ी वजह यह है कि बंगाल की लगभग 3.5 करोड़ महिला मतदाता वहां बड़ी भूमिका अदा करने में सक्षम हैं। वहां एक महिला मुख्यमंत्री पिछले 10 बरस से राज कर रही हैं और वह चुनाव में नारी शक्ति की महत्ता से भली-भांति परिचित हैं। 2019 के आम चुनाव में भले ही भाजपा ने वहां 18 सीटें जीती हों, पर ममता बनर्जी ने 40 फीसदी सीटों पर महिलाओं को शक्ति आजमाने का मौका दिया था। 2019 में कमजोर प्रदर्शन के बाद से ही उन्होंने तृणमूल कांग्रेस में एक आनुषंगिक संगठन ‘बंग जननी वाहिनी’ का गठन किया। यह महिला ब्रिगेड घर-घर जाकर ममता की नीतियों का बखान करती है और जरूरत के मुताबिक सड़कों पर भी उतरती है। लोकसभा में तृणमूल की नौ महिला सांसद हैं। इन्हें अक्सर अपनी बात रखने का अवसर दिया जाता है। पहली बार लोकसभा पहुंचीं महुआ मोइत्रा का राष्ट्रपति-अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर भाषण इसकी नजीर है। इतने गंभीर विषय पर सौगत राय जैसे वरिष्ठ सदस्य के बजाय महुआ को मौका देना सोची-समझी सियासी रणनीति की मिसाल है। वैसे भी, ममता बनर्जी ग्राम पंचायत से लेकर देश की सबसे बड़ी पंचायत तक महिलाओं को चुनावी अवसर प्रदान करने के लिए मशहूर हैं। उन्होंने कन्याश्री प्रकल्प, रूपाश्री प्रकल्प, समूझ साथी, मुक्ति रालो, मातृत्व शिशु देखभाल अवकाश और महिलाओं के नाम से हेल्थकार्ड जारी कर अपने इस ‘वोट बैंक’ को पुख्ता करने की पुरजोर कोशिश की है।
तृणमूल कांग्रेस जानती है कि महिलाएं नरेंद्र मोदी को नेता के तौर पर पसंद करती हैं, इसीलिए उसके नेता भाजपा नेताओं के बयानों से कथित नारी-विरोधी वाक्य निकालकर भाजपा को महिला-विरोधी साबित करने की कोशिश करते रहते हैं। भगवा दल इस रणनीति से वाकिफ है। कोई आश्चर्य नहीं कि इस हफ्ते की शुरुआत में प्रधानमंत्री ने हुबली की जनसभा को संबोधित करते हुए तमतमाए अंदाज में कहा- ‘बंगाल की बेटी के साथ अन्याय करने वाले लोगों को क्या माफ किया जा सकता है? देश के गांवों में हर घर तक पाइप से पानी पहुंचाने के लिए जल-जीवन मिशन चल रहा है। प्रयास यह है कि हमारी बहनों, माताओं, बेटियों को पानी लाने में अपना समय और श्रम न लगाना पड़े।... बंगाल के लिए यह मिशन इसलिए जरूरी है कि यहां के डेढ़-पौने दो करोड़ ग्रामीण घरों में से सिर्फ नौ लाख घरों में नल से जल की सुविधा पहुंच पाई है।... यह दिखाता है कि टीएमसी सरकार को पश्चिम बंगाल की बहन-बेटियों की जरा-सी भी परवाह नहीं है। जो पानी के लिए तरस रही है, वह बंगाल की बेटी है कि नहीं है?’भारतीय जनता पार्टी के नेता अपनी सभाओं में आंकड़ों के जरिए यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि बंगाल न केवल विकास में पीछे है, बल्कि महिला-कल्याण के मामलों में भी वहां कोई खास काम नहीं हुआ है। वोटरों को आंकड़ों के जरिए बताने की कोशिश हो रही है कि पूर्वी भारत के इस अग्रणी प्रदेश में महिला मुख्यमंत्री होने के बावजूद महिलाएं असुरक्षित हैं। ऐसे में, यह देखना दिलचस्प होगा कि पश्चिम बंगाल की नारी शक्ति किसके काम अथवा नारों से प्रभावित होती है, पर मैं चुनावी हार-जीत से कहीं ज्यादा इसे आधी आबादी के उभार के तौर पर देखता हूं। यह साफ है कि भारत में पंचायत चुनावों में महिलाओं के आरक्षण के बाद से उनमें सियासी जागरूकता बढ़ी है। आंकड़े भी इसकी मुनादी करते हैं। 2019 में लोकसभा में तत्कालीन पंचायत मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि देश की 2,53,380 ग्राम पंचायतों में कुल जमा 41 लाख जन-प्रतिनिधि हैं, जिनमें 46 फीसदी महिलाएं हैं। हालांकि, सत्ता के सर्वोच्च पदों पर अभी उन्हें अपनी बेहतर आमद दर्ज करानी है। देश की सबसे बड़ी पंचायत के निचले सदन में अभी सिर्फ 78 महिला सांसद हैं। उम्मीद है, बिहार के बाद बंगाल का चुनाव सियासी हार-जीत से अधिक आधी आबादी के हक-हुकूक की भी मुनादी करेगा।
सौजन्य - हिंदुस्तान