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DevBhoomi Insider Desk
• Fri, 26 Aug 2022 4:32 pm IST


परिवार की सोच को कंट्रोल करते नैरेटिव


सच कहता हूं, मुझे कभी कोई मां-बाप नहीं मिले ऐसे, जिनकी सख्ती या खराब व्यवहार ने बच्चों को बिगाड़ दिया हो। सबके ज्यादा लाड़-प्यार ने ही बिगाड़ा था बच्चों को। कुछेक ने बेटियों को ज्यादा पढ़ा दिया और वे बिगड़ गईं, या बिगड़ने लगीं। सोचिए ज्यादा क्यों पढ़ाया? क्योंकि प्यार करते थे बेटी से। और क्या कारण हो सकता है! कोई मजबूरी तो थी नहीं। आप कहेंगे कि नहीं, अंदरखाने यह बात भी रही होगी कि थोड़ा पढ़ ले तो ज्यादा पढ़े-लिखे, ऊंची पगार पाने वाले लड़के मिल सकते हैं। दहेज में भी थोड़ा बारगेन हो सकता है। अव्वल तो ऐसी बात होती नहीं थी, सारे मां-बाप निःस्वार्थ प्यार करते थे अपनी संतान से, लेकिन मान लीजिए कुछ पर्सेंट के मन में यह बात हो भी तो क्या? आदमी अपनी बेटी का अच्छा घर-वर उसी के भले के लिए तो चाहता है। पर लड़कियां इसका फायदा उठाने की सोचने लगीं। अपनी मर्जी से शादी! मां-बाप भी कब तक सहते। जब पानी नाक से ऊपर जाने लगा तब अपने प्यार पर काबू पाकर ताकत दिखाने पर उतरे। ज्यादातर लड़कियां भावनात्मक दबाव से ही मान गईं, कुछ को धमकियों की जरूरत पड़ी। एकाध को ही कमरे में बंद करने की नौबत आई। फिर भी दो-तीन तो ऐसी कुलटा निकल ही आईं जो मां-बाप और पूरे खानदान के मुंह पर कालिख पोत किसी के साथ भाग गईं। होश संभालने के बाद और नौकरी के लिए शहर छोड़ने के बीच की मेरी दुनिया यानी घर, परिवार, गली मोहल्ले और नाते-रिश्तेदारों वाले उस समय के मेरे संसार की यह तस्वीर है।

लड़कों का सीन भी कोई अलग नहीं था। एक पिता बेटे को हैंगर से पीटते थे। वह भी इसलिए कि संस्कृत के 50 से ज्यादा श्लोक कंठस्थ करने और दूसरी कक्षा में होते हुए तीसरी का मैथ बना देने वाला वह बच्चा चौथी क्लास के मैथ का फॉर्म्युला नहीं याद रख पाता था। सोचिए क्या गुजरती होगी उस बाप के कलेजे पर, लेकिन बच्चे के प्रति उसका प्यार था जो उससे यह सब करवाता था। ऐसे और भी पिता थे। एक तो बेटे को आईएएस बनवाने पर ऐसे तुले कि उसकी इच्छा के बारे में पूछने तक का होश नहीं रहा। यकीन मानिए, सारे मां-बाप ऐसे ही प्यार से लबालब भरे मिले। एक भी ऐसा न था जिसने बच्चों की परवरिश में कोई कमी रहने दी हो।

आखिर क्यों? क्योंकि नैरेटिव वही सेट करते थे। आप कहेंगे कौन सा शास्त्र-पुराण लिख दिया इन मां-बापों ने। शास्त्र-पुराण भले न लिखा हो, परिवार की सोच तो कंट्रोल करता ही था यह नैरेटिव। बच्चों को पूछता कौन था तब। मां-बाप को गरियाते भी होंगे तो अपने दोस्तों के बीच। वे गालियां पारिवारिक चर्चा-परिचर्चा का हिस्सा बनती ही नहीं थीं कभी। वैसे एक बात और हुई। इन सारे बच्चों को मां-बाप के प्यार और उनके बड़प्पन का अहसास हुआ, लेकिन तब जब वे खुद मां-बाप बन गए और अपने बच्चों पर जुल्म ढाने की पोजिशन में आ गए।