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DevBhoomi Insider Desk
• Thu, 14 Jul 2022 5:40 pm IST


कल्पनाशीलता को बचाइए


एक स्कूल में आर्ट के पीरियड में टीचर ने बच्चों से कार बनाने को कहा। बच्चों ने अपनी समझ के हिसाब से रंग-बिरंगी कारें बनाईं। एक बच्चे ने कार में दरवाजों के पास पंख लगा दिए और छत पर हेलिकॉप्टर जैसा बड़ा सा पंखा। टीचर ने बच्चे की ड्रॉइंग बुक में बनी हुई कार को लाल पेन से काटते हुए नोट लिखा- प्लीज, मेक अ पॉपर कार। मां ने बच्चे की ड्रॉइंग बुक देखी तो उसे फटकार लगाते हुए कहा- कार भी कहीं उड़ती है? अगले दिन बच्चा ड्रॉइंग बुक पर एक साधारण सी कार बनाकर लाया। टीचर ने उस पर सही का निशान लगाते हुए साइन कर दिया। इस सबके बीच एक मासूम सवाल, जवाब की तलाश में भटक गया। ‘क्या कारें उड़ सकती हैं?’

पहली नजर में साधारण सा नजर आने वाला यह किस्सा असल में एक हत्या की कहानी है। एक बच्चे की कल्पनाशीलता की हत्या। सोचिए, कला क्या है? चीजें जैसी दिखती हैं, उन्हें वैसे ही बयान कर देना या लकीरों के जरिए कागज पर उतार देना ही कला है? नहीं बिल्कुल भी नहीं। यह तो डॉक्युमेंटेशन या दस्तावेजीकरण है। चीजों को अपने नजरिए के साथ पेश करना कला है। नजरिए को शब्दों या चित्रों में उतारने के लिए कल्पनाशीलता की जरूरत होती है। यानी बिना कल्पनाशीलता के आर्ट या कला संभव ही नहीं। इसे दो शब्दों के जरिए और विस्तार से समझते हैं। पहला शब्द है- फटॉग्राफ। फटॉग्राफ यानी फोटॉन (लाइट) के जरिए लाइट सेंसिटिव सरफेस पर बनने वाली तस्वीर। दूसरा शब्द है- इमेज। है यह भी लाइट से बनी हुई तस्वीर ही, पर इमेज शब्द में इमैजिनेशन भी शामिल होती है। फटॉग्राफर जब किसी तस्वीर में एंगल, रंगों और पर्सपेक्टिव के जरिए अपना इमैजिनशन जोड़ता है तो वह इमेज बनती है। हर फटॉग्राफ, इमेज हो, ऐसा जरूरी नहीं।

कल्पनाशीलता बच्चों का नैसर्गिक गुण है। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि वे दुनिया में हम बड़ों द्वारा बनाए गए कायदों को नहीं जानते। न जानना या कम जानना उनकी कल्पनाशीलता की उड़ान को पंख देता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है कल्पनाशीलता की जगह यथार्थ लेने लगता है क्योंकि चाहे-अनचाहे वह दुनिया के प्रचलित कायदे मानने लगता है। छोटे बच्चों को पढ़ाने वाले टीचर संवेदनशील न हो कल्पनाशीलता को हाशिए पर ढकेलने की अंजानी शुरुआत छोटी क्लास से ही हो जाती है।

अब सवाल यह कि कल्पनाशीलता को बचाना इतना जरूरी क्यों है? हमारे वक्त के जरूरी कवि विनोद कुमार शुक्ल अपने एक इंटरव्यू में कहते हैं कि मां अक्सर कहती थीं, परेशान मत हो सब ठीक हो जाएगा। सब ठीक हो जाएगा, यह कल्पना ही तो है। जीवन में सब कभी ठीक नहीं होता। लेकिन मनुष्य के पास सब ठीक हो जाने की कल्पना न हो तो वह यथार्थ का मुकाबला नहीं कर पाएगा।

जीवन के प्रति विनोदजी की समझ का सहारा लेते हुए मैं कहना चाहता हूं कि बच्चो! कार उड़ सकती है, लेकिन यथार्थ में उड़ने से पहले उसे कल्पना में उड़ना होगा।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स