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• Fri, 24 Nov 2023 11:43 am IST


पानदान से नापी जाती थी इंसान की हैसियत


अवध के नवाबों को सूबे के पूर्ववर्ती राजाओं-महाराजाओं से विरासत में अनेक परंपराएं मिलीं। उनमें से एक यह भी थी कि कोई गंभीर चुनौती सामने आ खड़ी हो तो जिन रणबांकुरों या सिपहसालारों को उससे निपटने में काबिल माना जाए, उनके सामने पान का बीड़ा रखकर पूछा जाए कि उनमें से कौन उसे उठाएगा? असल में यह चुनौती का बीड़ा होता था। फिर जो भी उसे उठाए, चुनौती को उसकी आन से जोड़ दिया जाए, ताकि वह उससे निपटने में जी-जान लगा दे।

क्या पता नवाबों ने इस परंपरा की बेकद्री की या चाहकर भी उसे बचा नहीं पाए, लेकिन उनके दौर में पान के ऐसे बीड़े महज कहावतों में रह गए। अलबत्ता, पान की सुर्खी के आकर्षण ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। यहां तक कि एक शायर ने तो उसे कयामतखेज तक बता डाला, ‘कयामतखेज है सुर्खी ये पानों की लब-ए-तर में, खुदा जाने ये दोनों लाल हैं किसके मुकद्दर में।’

इतना ही नहीं, जो पानदान दूसरे शहरों में पान रखने के डिब्बे या पिटारियां भर हुआ करते थे, अवधवासियों की जीवनशैली और तहजीब का अंग तो बने ही, हुनर के प्रदर्शन का जरिया भी बन गए। पानदानों के साथ डली या सुपारी काटने के लिए जो सरौते हुआ करते थे, वे भी किसी कलाकृति से कम नहीं ही रह गए। आगे चलकर ये दोनों लोहे, जस्ते या तांबे जैसी सस्ती और सोने-चांदी जैसी बेशकीमती धातुओं से बनने लगे, साथ ही अपनी कम या ज्यादा कीमत के मुताबिक अपने मालिक की माली हैसियत भी बताने लगे।

जितने नफासती ये पानदान बाहर से होते थे, इनके अंदर उतनी ही नफासत से पान रखने की छोटी-बड़ी जगहें बनी होती थीं। बड़े खानों को कुल्हियां कहा जाता और उनमें कत्था और चूना रखा जाता जबकि डिब्बियां कहलाने वाले छोटे खानों में डली (सुपारी), जर्दा और पान का जायका बदलने वाली दूसरी चीजें। कुल्हियों के ढक्कन कसे होते थे, जबकि डिब्बियों के ढक्कन बस उन पर रखे भर होते थे। कई पानदानों के बीच में लौंग और इलायची आदि रखने के लिए अलग इंतजाम भी होता था।

अवध के नामी इतिहासकार अब्दुल हलीम ‘शरर’ के मुताबिक पहले दिल्ली में गोल, वर्गाकार या अठपहलू पिटारियों जैसे पानदान हुआ करते थे। बाद में हैदराबादियों ने भी उन्हें जस का तस अपना लिया था। लेकिन लखनवियों ने उन्हें अपनी रुचि और रहन-सहन के मुताबिक काट-छांटकर उनका नक्शा बदलकर ही अपनाया। और तो और, उनकी शक्ल कलशों जैसी बना दीं, उनकी चोटी पर कड़ा भी लगा दिया ताकि उन्हें लाने-ले जाने में दिक्कत न हो।

वक्त बदला तो ऐसे अनेक पानदान बेकद्री के चलते घरों के कोनों में धूल फांकने लगे, लेकिन उससे पहले उनमें पान और उसके सामानों के अलावा रातरानी भी रखी जाती थी। निकाह के बाद बीवियां अपने मायके से पानदान लेकर ससुराल आती थीं और निकाहनामों में दर्ज किया जाता था कि उनके मियां उनको कितना ‘खर्चा-ए-पानदान’ देंगे। शुरू में पानदान मुसलमानों के घरों की ही शोभा थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने सारी धार्मिक बाड़बंदियां फलांगकर हिंदुओं के घरों में भी जगह बना ली।

पान के शौकीनों का महज पानदान से काम नहीं चला तो खासदान और उगालदान का भी ‘आविष्कार’ हुआ। खासदान कलात्मक ढक्कन वाली ट्रे जैसा होता था, जिसमें पान के बीड़े या गिलौरियां सलीके से रखी और परोसी जाती थीं। लखनऊ के कलाकार इस ट्रे को लासानी बनाने में भी कुछ कम हुनरमंदी नहीं दिखाते थे।

लेकिन जाने क्यों, उन्होंने पान खाने वालों की पीक थूकने की जरूरत पूरी करने के लिए कलात्मक पीकदान बनाने में कतई रुचि नहीं ली। इसीलिए ‘गुजिश्ता लखनऊ’ में ‘शरर’ ने यह तो बहुत शान से बताया है कि तब पानदान और खासदान बैठकों, सभाओं और समागमों का जरूरी हिस्सा थे, लेकिन पीकदानों की ईजाद या तरक्की में लखनऊ के किसी भी तरह के योगदान से साफ इनकार कर दिया है। यह लिखकर कि पीकदान शायद दिल्ली में ईजाद हुए और जस के तस लखनऊ चले आए। आखिर पीकों से फर्श के पुरतकल्लुफ कालीनों, दीवारों और पोशाकों को बचाने के लिए लखनवियों को भी उनकी जरूरत पड़ती ही थी।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स