अनधिकृत तौर पर औरों की बातें सुनना कोई अच्छी बात नहीं मानता मैं। लेकिन उस दिन हालात मेरे वश में नहीं थे। जिस कुर्सी पर मैं बैठा था, वही मेरे लिए निर्धारित थी। पास ही एक अन्य शख्स की फोन पर अपने किसी मित्र से बातचीत हो रही थी। उस मित्र को अंदाजा नहीं था कि इस जिगरी दोस्त के साथ की जा रही उसकी बातचीत एक तीसरे व्यक्ति तक पहुंच रही है जो उसके अपने मतलब निकाल सकता है। खैर, मैं इस मामले में कुछ कर नहीं सकता था, सो मैंने इसके नैतिक पहलू पर सोचना बंद कर दिया। अब यह पूरी बातचीत मजेदार लगने लगी। वह दोस्त अपनी जिंदगी से काफी बोर हो चुका लग रहा था, खासकर प्रफेशनल जिंदगी से। जो वह कर रहा था, उसमें उसे मजा नहीं आ रहा था और जिन बातों में मजा आने की संभावना थी, उनमें इतनी कमाई होने के आसार नहीं थे कि घर-परिवार का गुजारा हो जाए। उस व्यक्ति का चेहरा सामने नहीं था लेकिन आवाज में इतनी शिद्दत थी कि बोलते हुए चेहरे पर जो उतार-चढ़ाव आ रहे होंगे वे आंखों के सामने तैर जा रहे थे।
वह आवाज मन की यह इच्छा व्यक्त कर रही थी कि बनारस में रह रहीं संगीत से जुड़ी हस्तियों से बातचीत की जाए, उनकी संगति में थोड़ा वक्त गुजारा जाए। लेकिन इसकी दो ही सूरत हो सकती है। पहली यह कि उनमें से किसी का शिष्यत्व स्वीकार करके बरसों उनके साथ सुर की साधना की जाए। लेकिन जीवन की जो दशा और दिशा है, उसमें यह संभव नहीं। दूसरी स्थिति यह बनती है कि किसी अखबार या मैगजीन के लिए उनका इंटरव्यू किया जाए। लेकिन जब तक उनकी कला की बुनियादी जानकारी हासिल न हो जाए तब तक इंटरव्यू भी कैसे कर सकते हैं। तो पहले तो कोई ऐसी पुस्तक मिले कहीं से, जिसे पढ़ने से सुर और राग की बेसिक समझ बन जाए।
पुस्तक का जिक्र आया तो दूसरा विकल्प भी सामने आ गया। अच्छी किताब लिखना भी मन लायक काम हो सकता है। कालजयी पुस्तक लिखने का सुख ही अलग है। जरूरी नहीं कि बहुत ज्यादा कविता-कहानियां लिखी जाएं। कंटेंट की क्वॉलिटी मायने रखती है क्वांटिटी नहीं। चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने तो सिर्फ तीन कहानियां लिखी थीं जीवन में, उनमें भी एक मशहूर हुई- उसने कहा था। उसी एक कहानी ने उन्हें अमर कर दिया। लेकिन हम कहानी या कविता लिखें भी तो कौन छापने बैठा है, और मान लो छप भी गई कहीं तो एकाध से बात नहीं बनेगी। कम से कम संग्रह तो आना चाहिए। फिर किताब छपाने में भी तो पैसे लगते हैं। और वे पैसे लौटेंगे कैसे और जब तक लौटेंगे तब तक घर-कैसे चलेगा! घूम-फिरकर सवाल वही है घर चलने का। यानी मन के मुताबिक नहीं जी सकते। मन को मारकर ही जीना पड़ेगा। यार ये दुनिया इतनी जटिल क्यों बना दी हमने कि मन का काम करके जीवन ही न चले!
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स