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DevBhoomi Insider Desk
• Tue, 28 Jun 2022 1:12 pm IST


इतना खराब हवा में जिंदा कैसे रहें


हाल ही में आई यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो की स्टडी में कहा गया कि हिंदुस्तान की 63 फीसदी आबादी जहां रहती है, वहां की हवा रहने लायक नहीं है। यह स्टडी हिंदुस्तानी मानकों के हिसाब से है। एयर क्वॉलिटी इंडेक्स का भारतीय मानक है पीएम 2.5 के लिए 40 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मिमी, और पीएम-10 का अपर लेवल है 60 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मिमी। अगर हम डब्ल्यूएचओ या वर्ल्ड इंडेक्स के बरक्स देखें तो भारतीय मानक उनसे 11 गुना ज्यादा हैं। इस हिसाब से तो भारत की लगभग 80 से 90 फीसदी आबादी ऐसे क्षेत्र में रह रही है, जहां की हवा रहने के काबिल नहीं है।

आंकड़े 2013 से बता रहे हैं कि दुनिया भर में होने वाले वायु प्रदूषण में भारत का हिस्सा 44 फीसदी है। भारत में इस पर कंट्रोल के लिए जो अजेंसियां काम कर रही हैं, उनका अनुमान है कि 2025 तक हम डेढ़ से ढाई फीसदी तक वायु प्रदूषण कम कर लेंगे। लेकिन जिस तरह से प्रदूषण बढ़ रहा है, इनके अनुमानों से कोई उम्मीद नहीं है। इससे भारत की गंगा किनारे बसी सभ्यता एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुकी है। उत्तराखंड- जहां से गंगा निकलती है और उत्तर प्रदेश, बिहार-बंगाल होते हुए जाती है, डब्ल्यूएचओ के मुताबिक यहां वायु प्रदूषण बाकी जगहों से 21 गुना ज्यादा है।

2019 में लांसेट मेडिकल जर्नल में आया था कि भारत में हर साल 16 लाख लोगों की जान सिर्फ वायु प्रदूषण की वजह से जाती है। तब यह कुल मौतों का 17 फीसदी हिस्सा था। वायु प्रदूषण के चलते कैंसर टॉप पर है। दिल की बीमारियां, प्रीमच्योर बेबी डेथ हो रही हैं। गर्भ में पलते बच्चे का एबनॉर्मल डिवेलपमेंट होता है, मानसिक विकास नहीं होता। अक्टूबर से जनवरी के बीच दमा बढ़ता है तो पुराने मरीजों की हालत और खराब हो जाती है। साल दर साल इस सीजन में वेंटिलेटर पर आने वाले मरीज तेजी से बढ़ रहे हैं। कोरोना में सबने देखा ही कि हमारे पास कितनी ऑक्सिजन है। तब बहुतों को ऑक्सिजन चाहिए थी, तो फौरी तौर पर हमें वह समस्या दिख गई। लेकिन वायु प्रदूषण के चलते भविष्य में यह भी हो सकता है कि इतने मरीज आने लगें कि हमारे पास बेड कम पड़ जाएं।

भारत में वायु प्रदूषण के मुख्य कारणों में है औद्योगीकरण, आर्थिक विकास और सन 2000 के बाद सड़कों पर उतरीं चार गुना गाड़ियां। अब इन पर एक नीति चाहिए। अनियमित शहरीकरण की जगह पर योजनाबद्ध शहरीकरण हो। मसलन, जो नोएडा या नोएडा एक्सटेंशन या दूसरे बड़े शहरों के उपनगर डिवेलप हो रहे हैं, वहां एक निश्चित क्षेत्र में कितनी इमारतें बनेंगी? वहां से जो कार्बन फुटप्रिंट बनेगा, उसे न्यूट्रलाइज करने की क्या व्यवस्था है? कितना हरित क्षेत्र चाहिए होगा? यहां रहने वाले लोग काम करने कहां जाएंगे? अगर नोएडा एक्सटेंशन में रहने वाला व्यक्ति गुड़गांव जा रहा है तो इसे योजनाबद्ध शहरीकरण कहने का कोई सेंस नहीं है। ऑफिस के पास घर हो, ट्रैवलिंग टाइम कम हो, तो वायु प्रदूषण भी कम होगा। योजनाबद्ध शहरीकरण में पहले तय करते हैं कि कैसे यहां रहने वालों के मूवमेंट कम हों, सारी सुविधाएं उनके आसपास ही हों। अफसोस कि ऐसा कुछ नहीं हो रहा है।

स्वीडन में अगर आपकी कार खड़ी रहती है तो पेनाल्टी लगा देते हैं। मतलब गाड़ी बहुत जरूरी है तभी रखें, अन्यथा पब्लिक ट्रांसपोर्ट यूज करें। लेकिन इसके लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था भी इंप्रूव करनी होगी। चीन 2013 में प्रदूषण पॉलिसी लाया और तब से उनका लेवल कम होता जा रहा है। वे निदान पर तो काम कर ही रहे हैं, लेकिन बड़ा काम वे रोकथाम पर कर रहे हैं। लेकिन हिंदुस्तान में सारा काम निदान पर ही हो रहा है। इससे प्रदूषण जिस लेवल पर पहुंच चुका है, वह खत्म नहीं होगा।


शिकागो वाली स्टडी के मुताबिक दिल्ली में लोगों की औसत आयु 10.2 साल कम हुई है, यूपी में 8.9 साल, बिहार में 7 साल। दुनिया भर में यह कमी 2.2 साल की है। पूरे हिंदुस्तान का आंकड़ा 5 साल है, इसी से समझ लीजिए कि हम कहां हैं। जबकि स्मोकिंग से ग्लोबल लाइफ एक्सपेक्टेंसी 1.9 साल और अल्कोहल से आठ महीने कम हुई है। यानी वायु प्रदूषण अब स्मोकिंग या शराबखोरी से भी ज्यादा खतरनाक है। आयु में कमी गंदे पानी, एचआईवी और दूसरी बीमारियों से भी आ रही है, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती वायु प्रदूषण ही है।

पहले पीएम 2.5 में जो मानक 10 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मिमी था, डब्ल्यूएचओ ने उसे अब 5 माइक्रोग्राम कर दिया है। 10 माइक्रोग्राम में भी काफी बीमारियां हो रही थीं। हमारा मानक अभी 40 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मिमी है। अगर हम डब्ल्यूएचओ के आंकड़े तक पहुंच जाएं तो हिंदुस्तानियों की औसत आयु 10 साल बढ़ सकती है। मगर यह करें कैसे? पहली बात, हमें मजबूत इरादे के साथ सस्ता और टारगेटेड प्लान लाना पड़ेगा। अभी हम इतना महंगा प्लान बनाते हैं कि वह जमीन पर उतरता ही नहीं है। टारगेट भी हमारा सही नहीं होता है। प्रदूषण बढ़ने पर हम धुंआ उगलते ट्रक से पानी छिड़कने लगते हैं।

दूसरे, इलेक्ट्रिक वाहनों से लगता है कि प्रदूषण नहीं होगा। लेकिन बैट्री तो बिजली से ही चार्ज होती है। हिंदुस्तान में आज भी अस्सी प्रतिशत से अधिक बिजली कोयले से ही पैदा होती है। कोयला जलाकर बिजली कहीं और बनी, फिर उसे बड़े शहरों में भेजते हैं। इसमें काफी लाइन लॉस भी होता है। बैट्री से भी कई प्रदूषित पदार्थ निकलते हैं, उसका भी आकलन करें, तब समझ में आएगा कि इलेक्ट्रिक वाहनों की अनुमति हमें कहां देनी है और कहां नहीं। जहां वायु प्रदूषण और लोगों का मूवमेंट कम है, वहां इलेक्ट्रिक वाहनों को ही चलाने का जोर ना डालें। तीसरे, डिवेलपमेंट के नाम पर जो जंगल काटे जा रहे हैं, उसे तुरंत बंद करें। ट्रांसपोर्ट के दूसरे उपायों पर ध्यान दें। नदी से जुड़े शहरों के लिए वॉटर ट्रांसपोर्ट अच्छा उपाय है। इन उपायों को अपनाएं तो कुछ राहत मिल सकती है, मगर ध्यान रहे कि रोकथाम और निदान- दोनों साथ-साथ चलने हैं।


सौजन्य से : नवभारत टाइम्स