उस दिन ऐसी धूप थी कि आपको भाप बना दे। मैं जब तक धूप में नहीं था, तब तक मुझे उसकी चिंता नहीं थी। लेकिन जब टैक्सी से उतर कर मुरैना स्टेशन पर आया और रेलगाड़ी के इंतजार में कुछ वक्त बीता, तब जाकर मुझे महसूस हुआ कि गला सूख रहा है, होंठ प्यास से चिपचिपे हो रहे हैं। पानी की बोतल याद आई, साथ ही यह भी कि वह तो मैं टैक्सी में ही भूल आया। सोचा कि टैक्सी वाले को फोन करूं और कहूं कि पानी की बोतल लेते आए। लेकिन फिर लगा, यह समझाना मुश्किल होगा कि आखिर एक पानी के बोतल की खातिर मैं क्यों उसे वापस बुला रहा हूं।
रेलगाड़ी के आने का वक्त हो चला था फिर भी प्यास इतनी तेज होती जा रही थी कि एक वेंडर के पास पहुंचा। पानी का बोतल ले लिया। गनीमत थी कि पीने के पहले पैसे देने लगा था। नगद ढूंढने लगा। जेब में मिले न बैग में। मुझे याद था कि निकलने से पहले श्रुति ने याद दिलाकर कैश रखा था लेकिन जब कैश मिला नहीं तब अपनी स्मृति पर भी संशय हुआ। दुकानदार से पूछा, पेटीएम या जी-पे ले लो। उसने कहा, उसके कहने में जाने क्या था, तंज या लाचारी कि क्या मालिक! बीस रुपए का नोट दई दो। मैं पलट आया। जिस ट्रेन से जाना था उसमें भी पानी की कोई उम्मीद नहीं थी। वहां से ट्रेन खुलती और आगरा रुकती। फिर दिल्ली। तब जाकर कोई टैक्सी वाला मिलता, जिससे मैं रेवाड़ी जाने के लिए मोलभाव करता, वह यात्रा शुरू करता और फिर मैं उससे कहता कि भाई पानी की बोतल दिला, बिल में पैसे जोड़ लेना। इस सब में पांच घंटे लग जाने थे और रेलगाड़ी में अपनी हालत की कल्पना से मुझे शरद बिल्लौरे की याद आ रही थी। उस आदरणीय कवि की मृत्यु रेलगाड़ी में प्यास लगने और देर तक पानी न मिलने से ही हुई थी। उन्हें लू लग गई थी। इसे संयोग ही कहा जाना था कि कुछ वर्षों पूर्व उनकी अप्रतिम कविता ‘तय तो यही हुआ था’ से शीर्षक उधार लेते हुए मैंने कहानी भी लिखी थी। अनबूझ सा एक डर तारी हो रहा था। सामने नलका था लेकिन खुले नलकों से पानी पीने का साहस नहीं हो रहा था। पानी की टंकियां किस कदर साफ होती होंगी, इसे लेकर मन में संशय था। मैंने तय कर लिया कि रेलगाड़ी अगर समय से आ गई तब यही पानी पी लूंगा वर्ना भीतर परेशानी हद से अधिक बढ़ जानी थी। इतने में दूसरा पानी वाला दिखा। मैंने उससे पहले ही पूछ लिया, पेटीएम? उसने भी पहले इंकार कर दिया। मैंने पलटने के ठीक पहले उससे कहा, बड़ी प्यास लगी है और कैश बिल्कुल नहीं है। उसने मेरी तरफ़ देखा और कहा, कैश ही जमा करना पड़ता है। जब मैं पलट चुका था तब उसने आवाज दी और कहा, मेरे पर्सनल नंबर पर कर दो, शाम की देक्खी जावेगी। ओहो!जब पैसे देने लगा तब उसने कहा पहले पानी पी लो। मुझे डर था कि जैसा दिन बीत रहा है कहीं उसमें यूपीआई काम करना न बंद कर दे। इसलिए पहले पैसे दिए फिर पानी पिया। और पूरी बोतल पी गया। बात यहीं खतम नहीं हुई। उसने कहा, कुछ कैश आप मुझसे ले लो, रस्ते में काम पड़ सकता है। पानी का नशा इतना तेज था कि मैं उसे दो बार की कोशिश में धन्यवाद कह सका था।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स