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• Tue, 16 Mar 2021 4:34 pm IST


चंडी पाठ और चोट के सियासी मायने


पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का चोटिल होना विधानसभा चुनाव का संभवत: एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है। स्थानीय मीडिया की मानें, तो वह गाड़ी में बैठी थीं और उनका पांव बाहर था, जिसके कारण दरवाजा बंद करते वक्त उन्हें चोट लग गई। मगर तृणमूल कांग्रेस का आरोप है कि चार-पांच लोगों ने उन्हें धक्का दिया है। पार्टी ने यह भी कहा है कि हादसे के वक्त ममता बनर्जी के साथ सुरक्षाकर्मियों का न होना उनके खिलाफ साजिश है। आम लोग इस तर्क से पूरी तरह सहमत नहीं दिख रहे। उनका मानना है कि प्रोटोकॉल के तहत मुख्यमंत्री के संग सुरक्षाकर्मी जरूर होंगे। हां, ममता चूंकि अपना सुरक्षा घेरा तोड़कर समर्थकों के बीच जाती रही हैं, इसलिए यह एक सामान्य दुर्घटना हो सकती है। इसी कारण, भाजपा और कांग्रेस जैसे दल भी इस घटना को ‘सियासी ड्रामा’ बता रहे हैं, जिसका जवाब तृणमूल कांग्रेस की तरफ से लगातार दिया जा रहा है।

इस घटना के बाद नंदीग्राम का चुनावी संग्राम और ज्यादा दिलचस्प बन गया है। निस्संदेह, यहां का मुकाबला एकतरफा नहीं है। बीते दिसंबर में जब तृणमूल का साथ छोड़कर शुभेंदु अधिकारी भाजपा में शामिल हो गए थे, तब उसके तुरंत बाद ममता बनर्जी ने यहां से चुनाव लड़ने का एलान कर दिया था। बेशक कई ऐसी सीटें हैं, जहां से तृणमूल संस्थापक आसानी से जीत सकती हैं, मगर लगता है कि उन्हें यहां के 30-35 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं पर पूरा-पूरा भरोसा है। फिर जनता की इस उलझन का लाभ भी उन्हें मिल सकता है कि तृणमूल सरकार में परिवहन जैसे महत्वपूर्ण विभाग समेत तीन-तीन मंत्रालय संभालने वाले शुभेंदु अचानक से भाजपा में क्यों चले गए, जबकि उन्हें पार्टी में पर्याप्त तवज्जो मिल रही थी? लोग नारदा घोटाले में उनकी कथित संलिप्तता को इस दलबदल की वजह मान रहे हैं। फिर तृणमूल कांग्रेस पूरी जी जान भी यहां लगा रही है, क्योंकि उसकी मुखिया यहां से उम्मीदवार हैं। बावजूद इसके ममता बनर्जी की राह बहुत आसान नहीं है। नंदीग्राम आंदोलन में शुभेंदु भी एक महत्वपूर्ण चेहरा थे और पूर्वी मिदनापुर उनका गृह जिला भी है, जिसके अंतर्गत यह सीट आती है। इसके अलावा, वाम मोर्चा, कांग्रेस और इंडियन सेक्यूलर फ्रंट यानी आईएसएफ का गठबंधन भी मुकाबले को मुश्किल बना रहा है। हालांकि, माना यही जा रहा है कि मुख्यमंत्री का खुद मैदान में होना, अखिल गिरी जैसे तृणमूल नेता का नंदीग्राम में प्रभाव और आईएसएफ के बजाय सीपीएम का यहां से चुनाव लड़ना ममता बनर्जी के हित में है। करिश्माई व लड़ाकू छवि और अखिल भारतीय चेहरा भी मुख्यमंत्री के पक्ष में जाता दिख रहा है।

हालांकि, इस राज्य की जमीनी सच्चाई बहुत तेजी से बदल जाती है। पिछले 20-25 दिनों के घटनाक्रम से ही वाम-कांगे्रस-आईएसएफ गठबंधन अचानक से सुर्खियों में आ गया है, जिसके कारण पूरे पश्चिम बंगाल का चुनाव त्रिकोणीय बनता दिख रहा है। दरअसल, रोजगार की मांग को लेकर 11 फरवरी को हुए मार्च में लाठीचार्ज होने से डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया का एक नेता गंभीर रूप से घायल हो गया था, जिसकी बाद में मौत हो गई। इस घटना से सीपीएम समर्थकों में लड़ने का नया जज्बा आ गया है। नौजवानों को पार्टी ने कितनी तवज्जो दी है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि करीब 60 फीसदी उम्मीदवारों की उम्र 40 वर्ष से कम है। वामपंथी युवाओं की इस ऊर्जा को कांग्रेस का साथ मिला है। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 5.67 फीसदी वोट मिले थे और दो सीटें उसके खाते में आई थीं, जबकि 6.33 फीसदी वोट हासिल करने के बावजूद वाम मोर्चा एक भी सीट नहीं जीत सका था। इसकी वजह यह थी कि कांग्रेस के समर्थकों ने एकमुश्त वोट दिया था। अगर इस गणित के आधार पर विधानसभा चुनाव की गणना करें, तो करीब 25 सीटों पर कांग्रेस आगे मानी जाएगी। वाम दलों और आईएसएफ के साथ समझौता होने के बाद उसकी उम्मीदें बढ़ गई हैं। माना जा रहा है कि यदि वाम दल 15-20 सीटें जीत सके और आईएसएफ दो-तीन सीटें भी ला सका, तो इन 25 सीटों के साथ यह गठबंधन करीब 50 विधानसभा सीटों पर कब्जा कर सकता है। इसके मजबूत संकेत इसलिए भी मिलते हैं, क्योंकि 28 फरवरी को बिग्रेड मैदान में आयोजित गठबंधन की रैली में अप्रत्याशित रूप से लाखों की भीड़ जुटी थी, जो इस चुनाव में अब तक का रिकॉर्ड है। बेशक रैली में शामिल सभी लोग मतदान नहीं करते, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में 39 फीसदी परंपरागत वाम समर्थकों ने भाजपा को वोट दिया था। अनुमान है कि यदि 10 फीसदी मतदाता भी वापस लौट आए, तो राजनीतिक समीकरण बदल जाएगा। भले ही यह गठबंधन अभी सरकार बनाने की नहीं सोच रहा होगा, लेकिन त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में यह अपने लिए महत्वपूर्ण जगह जरूर देख रहा होगा।

इस गठबंधन का ‘पहचान की राजनीति’ करना भी इसी रणनीति का हिस्सा है। वामपंथी पहली बार ऐसा करते दिख रहे हैं। राज्य के 28 फीसदी मुस्लिम वोटरों के साथ-साथ दलित, आदिवासी व वंचित तबकों के मतदाताओं पर उनकी नजर है। हालांकि, यहां धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति तृणमूल और भाजपा कहीं मजबूती से कर रही है। ममता सरकार अपने पूरे कार्यकाल में मुस्लिम तुष्टीकरण में लगी रही, जिसके जवाब में भाजपा ‘हिंदू कार्ड’ खेल रही है। मगर यह रणनीति शायद ही फायदेमंद साबित हो। ऐसा इसलिए, क्योंकि पश्चिम बंगाल का समाज धर्मनिरपेक्ष रहा है। यहां हिंदू और मुस्लिम मतदाताओं की सोच बेशक अलग-अलग है, लेकिन ये बिहार या उत्तर प्रदेश की तरह किसी खास दल से बंधे हुए नहीं हैं। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जिन 18 सीटों पर कामयाबी मिली थी, उनमें से 12 सीटें जंगल महल और नॉर्थ बंगाल से आई थीं, जहां दलितों व वंचितों की बहुतायत है। ‘भद्रलोक’ (ऊंची जाति के हिंदू) ने तृणमूल पर भरोसा किया था। अगर यही ट्रेंड विधानसभा चुनाव में भी रहा, तो ध्रुवीकरण ममता को ही फायदा पहुंचा सकता है। संभवत: इसीलिए वह चुनावी सभाओं में खुद को ‘ब्राह्मण’ बता रही हैं और ‘चंडी पाठ’ कर रही हैं।


सौजन्य - हिंदुस्तान