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• Fri, 23 Jul 2021 5:28 pm IST


डरावने समय का ‘न्यू नॉर्मल’


'न्यू नॉर्मल' को हिंदी में क्या कहेंगे? इस सवाल पर विचार करते हुए मुझे सलमान रुश्दी का मिडनाइट्स चिल्ड्रेन याद आया- वहां एक किरदार कहता है- 'सब ठीकठाक है.' सब ठीकठाक है- यानी कुछ है जो गड़बड़ है. 'ठीक' में शामिल 'ठाक' दरअसल किसी विसंगति, किसी विरूपता की ओर इशारा करने का काम करता है. लेकिन सत्तर के दशक में जब सलमान रुश्दी यह उपन्यास लिख रहे थे, तब जो ठीक-ठाक सी गड़बड़ी थी, अब वह डरावने आयाम ग्रहण कर चुकी है. जिसे सामान्य मानते थे- नॉर्मल- वह अब असामान्य हो चुका है- यानी ऐब्नॉर्मल- और उसे 'न्यू नॉर्मल' बनाने की कोशिश की जा रही है.

इसे कुछ उदाहरणों से समझने की कोशिश करें. महंगाई का विरोध एक सामान्य सी बात है. 1998 में प्याज महंगा हुआ तो दिल्ली की बीजेपी सरकार चुनाव हार गई- और उसके बाद से दिल्ली में उसकी वापसी नहीं हो पाई. 1977 में लोगों के भीतर इंदिरा गांधी की सरकार के विरुद्ध जो गुस्सा था, वह सिर्फ़ आपातकाल का नहीं था, महंगे तेल और राशन का भी था.

मनमोहन सरकार के ख़िलाफ़ अरसे तक विपक्ष की भूमिका भूली रही बीजेपी जब तब महंगाई को मुद्दा बनाती रही और तरह-तरह के तमाशों से बनाती रही. उसकी नेत्रियों ने फलों और सब्ज़ियों की माला पहन कर विरोध प्रदर्शन किया.

लेकिन अब महंगाई का विरोध सामान्य नहीं रहा. अब आपको महंगाई का विरोध करने पर देशविरोधी ठहराया जा सकता है. आपसे कहा जा सकता है कि आप मोदी सरकार के विरुद्ध साज़िश कर रहे हैं, एक मज़बूत देश के रूप में भारत के भविष्य की राह में रोड़ा हैं. जो लोग प्याज के तीस और फूलगोभी के 40 रुपये बिकने पर माला पहन कर निकल रहे थे उनको अब महंगाई की बात करना किसान विरोधी लगता है. उनके भीतर यह नई चेतना जागी है कि अर्थव्यवस्था की मज़बूती के लिए महंगाई सहनी पड़ेगी.