आपने क्या यह गौर किया है कि सुबह नींद खुलने और चेतन मन के सक्रिय होने के बाद से आप किसी दूसरे व्यक्ति से कुछ बात करें न करें, लेकिन आपकी खुद से बातचीत चालू हो जाती है। यह बातचीत पूरे दिन सतत चलती रहती है। आप जब नहा रहे होते हैं, तो नई स्फूर्ति से खुद से बात करने लगते हैं, ‘रुचि मेरी पत्नी है। उसे सारे मेहमानों के सामने मेरा मजाक नहीं उड़ाना चाहिए था। उसने मेरी इमेज तो हमेशा के लिए खराब कर दी।’ खाने खाते हुए भी आपकी बातचीत रुकती नहीं, ‘बॉस ने पिछले साल भी प्रॉमिस किया था कि मुझे अच्छा इंक्रीमेंट देंगे, लेकिन हुआ क्या। पिछले साल तो कम दिया ही, इस साल और भी कम दे दिया। सबको कम दिया होता, तो मैं मान भी लेता। लेकिन गोंजाल्विस को 15 परसेंट की ग्रोथ मिली है। यह सब इसलिए, क्योंकि मैं सीधा-सादा हूं। कुछ बोलता नहीं। पर अब बहुत हो गया। आज मैं ऑफिस जाते ही बॉस के केबिन में घुस जाऊंगा।’
घर में ऑफिस के लिए तैयार होते हुए भी खुद से बातचीत जारी है। आप अब बॉस से कहे जाने वाले वाक्यों की संरचना तैयार कर रहे हैं – नहीं, नहीं। इतने प्यार से बात रखूंगा, तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मुझे तल्खी से बात करनी होगी। गुस्सा दिखता है, तो दिखे। बात तो गुस्से की ही है। सीनियर होते हुए भी मेरे टैलेंट का कोई सम्मान नहीं। जब काम की बात हो, तो गधों की तरह करवा लो और जब ईनाम की बात हो, तो गोंजाल्विस को बुलवा लो।
अब आप दफ्तर के लिए निकल चुके हैं, लेकिन रास्ते में खुद से बातें बदस्तूर जारी हैं। बस, विषय बदल गया है। अब आप अपने बड़े बेटे के भविष्य की चिंता कर रहे हैं- तीन-तीन ट्यूशन लगा के भी 90 पर्सेंट टच नहीं कर पाया। आजकल 90 से कम में कहां एडमिशन मिलता है। बाकी सब्जेक्ट्स में ठीक है, पर समझ नहीं आता कि मैथ में इसे क्या हो जाता है। हाफ इयर्ली एग्जाम में भी इसके मैथ में ही सबसे कम मार्क्स थे। छोटा वाला बेटा स्मार्ट है। उसकी कोई चिंता नहीं। पर यह बड़ा वाला तो नालायक ही साबित हुआ।
अब यह जरूरी नहीं कि ऑफिस पहुंचकर आप सबसे पहले बॉस के केबिन में ही घुसेंगे और हूबहू जैसे सोचा था, वैसे ही उनसे बात करेंगे। तब तक आपका मन बादल सकता है। कोई और विचार आ सकता है। आप बॉस के बारे में अच्छा भी सोचने लग सकते हो- चाहे कुछ भी बोलो, बंदा दिल का तो नेक है वैसे। उसने कोशिश तो पूरी की थी कि मेरा इंक्रीमेंट अच्छा हो। मुझे ग्रेड भी अच्छा दिया। चलो, एक साल और वेट कर लेता हूं। यह जो खुद से बातचीत का सिलसिला है, यह मुसलसल चलता रहता है। इसे आप चाहो भी तो नहीं रोक सकते, क्योंकि आपको यह जो अपने पूर्वजों का दिया दिमाग है, इसका स्वभाव ही है यूं खुद से बात करना।
लेकिन आप अपने से की जा रही बातचीत की दिशा नेगेटिव से पॉजिटिव जरूर कर सकते हो और जैसे ही आप इस तरह दिशा बदलने में कामयाब होते हो, आपके जीवन की दिशा भी बदल जाती है। अधोगति को प्राप्त होता जीवन अब ऊर्ध्व दिशा में जाने लगता है, क्योंकि यह जो आप खुद से बात करते रहते हो, यह बातचीत निरंतर आपके अवचेतन मन में दर्ज होती रहती है और जो अवचेतन मन में दर्ज होता है, वही आपकी जिंदगी की हकीकत भी बनता है, क्योंकि अवचेतन मन का काम ही यह है। उसके तार ब्रह्मांड से जुड़े होते हैं। वह ब्रह्मांड के साथ सांठगांठ कर आपकी सोची हुई, आपकी बोली हुई बातों को सच करता रहता है। उसे यह नहीं पता होता है कि आप जो सोच रहे हो या जो बोल रहे हो, वह आपके लिए अच्छा है या बुरा। वह उन्हें हकीकत में बदलता है। इसलिए जितना आप पॉजिटिव सोचते हैं, खुद से पॉजिटिव बातें करते हैं, आपके जीवन में उतने ही पॉजिटिव बदलाव दिखने लगते हैं। इसीलिए आप जो खुद से निरंतर बातें करते हैं, उनके प्रति सचेत हो जाएं और अपने लिए नेगेटिव सोचना और बोलना वर्जित कर दें।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स