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DevBhoomi Insider Desk
• Fri, 28 Oct 2022 5:26 pm IST


न्याय में देर भी, अंधेर भी


क्यों हैं विधि का विधान (रूल ऑफ लॉ) इंडेक्स पर भारत का बेहद ख़राब प्रदर्शन?

विधि का विधान यानी रूल ऑफ़ लॉ, यानी सरकारी ताक़त निरंकुश ना हो, उन पर लगाम हो, सरकारी तंत्र जवाबदेह हो, और क़ानून के आगे सब बराबर हों। वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट नामक संस्था हर साल एक वैश्विक इंडेक्स लेकर आती है, जो १४० देशों में विधि के विधान का मूल्यांकन करता है।

इस इंडेक्स में सिविल कानूनी प्रक्रिया में भारत का स्कोर बदतर है। सिविल विधि में होने वाली अकारण देरी पर भारत का नंबर १४० देशों में १३३ है।

ऐसे में भारत को अपना स्कोर सुधारने के लिए क्या करना चाहिए? इस के लिए न्याय प्रणाली में नीतिगत सुधारों की ज़रुरत है।

पहला, सिविल न्याय प्रणाली में सुधार की बात करें, तो कोर्ट को ज़रुरत है कोर्ट मैनेजमेंट की। अभी जज ही कोर्ट का कामकाज देखते है। जजों को अपने काम पर, यानी मुक़दमों के निपटारे करके फैसले सुनाने पर ध्यान देने की ज़रुरत है। कोर्ट के कामकाज, यानि कि मुकदमा दायर करने से लेकर, नोटिस भेजना, ऑर्डर की कॉपी देना आदि प्रशासनिक कामों के लिए अलग मैनेजर होने चाहिए। इस के लिए एक अलग स्वायत्त संस्था हो, जो कोर्ट के प्रशासनिक कामकाज को चलाएं, वैसे ही जैसे अस्पताल को चलाने में और मरीज़ का ऑपरेशन करने के लिए मैनेजमेंट और सर्जन अलग-अलग व्यक्ति होते हैं।

दूसरा, आम तौर पर जजों की कमी की ही बात होती है, पर जजों की उत्पादकता, क्षमता और दक्षता की बात पहले होनी चाहिए। पिछले पांच सालों में हमारे देश में इस पर काफी आंकड़े सामने आये है। उन कोर्ट और जजों को पहचान होनी चाहिए, जिनका कामकाज सबसे सुस्त है। ज़रूरी नहीं, सुस्ती नालायकी के कारण ही हो, इसके पीछे और कारण भी हो सकते हैं। पर आंकड़े खंगाले और पहचान किये बिना अकारण देरी के वजह का पता लगाना मुश्किल होगा। इस लिए आँकड़े और उन पर बहस होने की बहुत ज़रुरत है।

तीसरा, हमारे देश में वकील ही अपने रेगुलेटर यानी विनियामक को वोट देकर चुनते हैं। ऐसा शायद ही किसी और सेक्टर में होता हो। ऐसे में वो रेगुलेटर अपने वोटरों के साथ कितना निष्पक्ष और कड़ा हो सकता है। यही कारण है कि वकीलों पर दंडात्मक करवाई और अनुशासनात्मक कार्रवाई के बहुत ही कम मामले देखने को मिलते हैं। विधि आयोग ने इस बारे में पहले भी सुधारों की बात कही हैं, पर वकीलों की तगड़ी लॉबी होने के कारण ये सुधारों का होना बहुत मुश्किल है।

चौथा, एक रिफार्म जो आसान भी है और सस्ता भी – वो है – कानूनों को सरल करना। जैसे हिन्दू तलाक़ की प्रक्रिया काफी लम्बी और पेचीदा है। तलाक़ की विधि पेचीदा होने से पति पत्नी के बीच अमूमन ४-५ केस चलते हैं – जैसे घरेलु हिंसा, तलाक़, मेंटेनेंस, चाइल्ड कस्टडी इत्यादि। तलाक़ को सरल बनाने से से दोनों पार्टियों को अपने जीवन में जल्दी आगे बढ़ने की आज़ादी मिल सकती है और बहुत सारे मुकद्दमें आसानी से ख़त्म हो सकते हैं। ज़मीन-सम्बंधित क़ानूनों को सरल करने से भी बहुत सारे झगड़ें ख़त्म हो सकते हैं। इसी तरह चेक बाउंस और ट्रैफिक चालान के मुक़द्दमे भी कानून को सरल कर ख़त्म किये जा सकते हैं। आख़िर क्यों हम कानूनों को इतना पेचीदा बनाये हुए हैं, जबकि हमारे कोर्ट और तंत्र के पास उन्हें पालन कराने की क्षमता भी नहीं हैं।

अगर हम चाहते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था ५ ट्रिलियन डॉलर की हो, तो हमें चाहिए एक त्वरित न्याय व्यवस्था।

जो कॉन्ट्रैक्ट को लागू करा पाए, बिना कॉन्ट्रैक्ट एनफोर्समेंट के कोई देश में अपना पैसा नहीं फंसाना चाहेगा। ाऔर उसके लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति चाहिए, और इस मुद्दे को वरीयता चाहिए। दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये कछुआ चाल न्याय व्यवस्था कभी भी किसी चुनाव का मुद्दा नहीं बनी।

फिलहाल, दिल्ली दूर है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स