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• Mon, 5 Apr 2021 11:13 am IST


बंगाल चुनाव में असर दिखाता ‘टॉम’


कई साल पहले बिल्कुल एक नए शब्द से परिचय हुआ था- टॉम (TOM)। वह अखबार से जुड़ी एक बिजनेस मीट थी, वहीं पर यह शब्द मेरे सामने आया था। मैं समझ नहीं पाया था कि यह TOM क्या होता है। फिर बताया गया कि TOM, यानी टॉप ऑफ मांइड। जो जेहन में सबसे ऊपर हो। चूंकि वह अखबार से जुड़ी मीट थी, इसलिए उसको समझाने के लिए अखबारी उदाहरण ही दिया गया, जैसे कि कोई आपसे कहे कि आप अखबारों के नाम बताएं, तो आप सबसे पहले जिस अखबार का नाम लेते हैं, वह एक तरह से ‘टॉम’ हुआ। यह बात सिर्फ अखबार से जुड़ी नहीं होती, बल्कि इसका ताल्लुक किसी भी दूसरी चीज से हो सकता है। आम के नाम बताइए, मिठाई के नाम बताइए, शहर के नाम बताइए, दोस्त के नाम बताइए। जिसका भी नाम सबसे पहले जुबान पर आए, वही टॉम है। यह भी बताया गया था कि यह जो टॉम होता है, वह एक दिन में नहीं बनता। यह एक लीगेसी जैसा होता है। अब जैसे उस मीट में मुझसे आम के नाम बताने को कहा गया, तो पहला नाम जो मेरी जुबान से निकला, वह था दशहरी। लखनऊ के लोग कहीं भी रहें, उनके लिए आम का मतलब तो दशहरी ही होता है।

बहरहाल करीब सवा दो सौ शब्द पढ़ लेने के बाद भी आप आज यह समझ नहीं पा रहे होंगे कि एक पॉलिटिकल कॉलम में ‘टॉम’ की कहानी बताने का क्या मतलब हो सकता है। दरअसल, मैं पिछले एक हफ्ते से बंगाल में हूं, चुनावी मौसम में बंगाल के रुझान का अंदाजा लगाने की कोशिश में हूं, उसी कोशिश में मुझे यहां ‘टॉम’ दिखा। यह ‘टॉम’ बंगाल के नतीजों को बहुत ज्यादा प्रभावित करता दिख रहा है, और मुझे बरसों पहले की वह बिजनेस मीट याद आ गई, जब पहली बार मैं ‘टॉम’ से परिचित हुआ था।

जुड़ें हैं अपनी जड़ों से
कहने को तो बंगाल, बांग्ला भाषियों का राज्य है, लेकिन यहां हिंदी एक आम भाषा की तरह बोली और सुनी जा सकती है। वजह यह है कि यहां यूपी, बिहार, झारखंड, राजस्थान, गुजरात जैसे राज्यों से आए और पीढ़ियों से बसे लोगों की तादाद काफी हो चुकी है। एक मोटे अनुमान के अनुसार बंगाल में सवा करोड़ से ज्यादा हिंदी भाषी रह रहे हैं, जिनमें से तीन-चौथाई बंगाल की मतदाता सूची में बतौर वोटर दर्ज हैं। अगर आप कोलकाता के सबसे बड़े बिजनेस वाले इलाके बड़ा बाजार में दाखिल होते हैं, तो यह महसूस होगा कि जैसे आप किसी हिंदी भाषी राज्य के बाजार में आ गए हैं। कोलकाता के अलावा नॉर्थ 24 परगना, पुरुलिया, आसनसोल, सिलीगुड़ी, खड़गपुर और दुर्गापुर में भी हिंदी भाषी राज्यों के लोगों की तादाद इतनी हो चुकी है कि वे वहां के चुनावी नतीजों को प्रभावित करने का दमखम रखने लगे हैं।

वे लोग भले ही अब बंगाल में रच-बस गए हों, लेकिन उनकी जड़ें आज भी अपने मूल राज्य से जुड़ी हुई हैं। उनके परिवार के दूसरे सदस्य, उनके रिश्तेदार अभी भी वहीं रहते हैं, इसलिए उनके जेहन में उनका मूल राज्य ही बसा है। लेफ्ट या टीएमसी से उनका वैसा राब्ता नहीं बन पाया है, जैसा अपने राज्य की पार्टियों से बना हुआ है। उनको लेकर वे इस तरह बात करते हैं, जैसे उन पार्टियों का हिस्सा हों। अपने राज्य के नेताओं से अच्छी तरह परिचित हैं। उनसे जुड़े तमाम किस्से उनके पास हैं। राज्यों में रह रहे उनके परिवार के सदस्य उन्हीं पार्टियों को वोट भी डालते हैं। चूंकि ज्यादातर हिंदी भाषी राज्यों में इन दिनों बीजेपी का दबदबा है, इस वजह से बंगाल में भी हिंदी भाषियों के बीच बीजेपी का ही दबदबा दिखाई पड़ रहा है।

कुछ ऐसा बोले हिंदी भाषी
अरुण उपाध्याय बक्सर के रहने वाले हैं, पिछले 33 सालों से बंगाल में रह रहे हैं। पूछा किसको वोट दोगे तो कहने लगे, ‘छुपाना क्या, बिहार में पूरा खानदान भाजपाई है, बंगाल में रहकर मैं कम्युनिस्ट तो हो नहीं जाऊंगा, बीजेपी को ही देता हूं, इस बार भी उसी को दूंगा।’ यूपी के आजमगढ़ जिले के रहने वाले अजीत यादव नया बाजार में सड़क के किनारे कपड़े बेचते हैं। हमने पूछा क्या चल रहा है तो बोले, बीजेपी जीत रही है। हमने कहा कि तुम तो अखिलेश यादव के इलाके से हो और अखिलेश यादव टीएमसी को वोट डालने को बोल रहे हैं, तो कहने लगे कि समाजवादी पार्टी अगर यहां होती तो उसको ही वोट कर देते, लेकिन वह तो लड़ नहीं रही। संदीप मंडल झारखंड के रहने वाले हैं, पिछले कई सालों से टैक्सी चला रहे हैं, बंगाल के वोटर बन चुके हैं। उनसे पूछा किसको जितवा रहे हो, तो बोले, बीजेपी जीत रही है।

पार्क स्ट्रीट पर एक साड़ी की दुकान पर काम करने वाले कई कर्मचारी बनारस के मूल निवासी मिल गए। बताने लगे, हावड़ा में रहते हैं। ‘चुनाव में कौन जीत रहा है’ के सवाल पर बोले, बनारस का हूं, आप खुद ही समझ लो कि चुनाव में क्या चल रहा होगा?

हिंदी भाषी वोटरों के बढ़ते दबदबे और उनके रुझान को ममता बनर्जी ने काफी पहले से समझना शुरू कर दिया था। उन्होंने हिंदी भाषी वोटरों को ध्यान में रखकर पिछले कुछ महीनों में फैसले भी लिए। उन्होंने राज्य में एक हिंदी विश्वविद्यालय स्थापित करने की घोषणा की है। अपनी पार्टी में हिंदी सेल गठित किया है, जिसका काम ही हिंदी भाषी लोगों से नियमित संवाद करने का है। बंगाल हिंदी समिति को पुनर्गठित करते करते हुए हिंदी भाषी लोगों में प्रभावी कई लोगों को शामिल किया। छठ पूजा पर दो दिन की सरकारी छुट्टी भी घोषित कर दी है। अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन तक का समर्थन भी जुटाया है, लेकिन बात बनती दिख नहीं रही है। यह धारणा काम कर रही है कि दीदी को दस साल हो गए, एक बार किसी और को मौका देकर देखा जाए।

सौजन्य – नवभारत टाइम्स