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• Thu, 2 Nov 2023 4:36 pm IST


सीने में जलन आंखों में तूफान का मौसम फिर आया


साल का वही समय फिर आ गया, जब दिल्ली-एनसीआर का आसमान स्मॉग की चादर से ढकने लगा है। प्रदूषण के कारण पहले से खराब यहां की हवा को पंजाब, हरियाणा के खेतों में जल रही पराली के धुएं ने और अधिक दूषित कर दिया है। दम घोंटने वाली इस ज़हरीली हवा में सांस लेना भी दूभर हो गया है। अभी तो ठंड की ठीक से शुरुआत भी नहीं हुई, तब यह हाल है, नवंबर में जब तापमान कम होगा और पराली जलाने की प्रक्रिया अपने पीक पर होगी, तब क्या होगा।

हर साल की तरह फौरी उपाय के तहत डीज़ल जेनरेटर्स और निर्माण कार्य पर प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन उसके बावजूद धूल और धुआं कम होता नहीं दिख रहा। पार्किंग फीस बढ़ाने के निर्देश के बावजूद सड़कों से निजी वाहनों की संख्या कम नहीं हुई। अपनी गाड़ी से चलने के आदि हो चुके लोगों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने की हिदायतें दी जा रही हैं, पर जब तक लास्ट माइल कनेक्टिविटी ही नहीं होगी तो लोग गाड़ियां कैसे छोड़ेंगे? पहले लोगों को अपना वाहन खरीदने पर मजबूर किया जाता है, फिर उम्मीद की जाती है कि वे इसे छोड़कर बस या मेट्रो में चलें। घर और दफ्तर से मेट्रो स्टेशन तक पहुंचने के लिए ढंग का पब्लिक ट्रांसपोर्ट न देकर ऐसी उम्मीद करना ही बेमानी है। लास्ट माइल कनेक्टिविटी के नाम पर खटारा ऑटो और असुरक्षित ई रिक्शे चलाकर उम्मीद की जाती है कि लोग इनमें चलें।

आखिर हर साल यह नौबत क्यों आती है, जबकि यह कोई अचानक आई मुसीबत तो है नहीं। सबको पहले से पता है कि इन महीनों में दिल्ली गैस चैंबर में तब्दील हो जाती है, उसके बावजूद ऐसी स्थिति को रोकने के क्या उपाय किए गए? समाधान खोजने के बजाय एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ने की राजनीति ज़रूर शुरू हो जाती है। पहले दिल्ली सरकार सारी ज़िम्मेदारी पंजाब पर डाल देती थी कि वहां पराली जलाने के विकल्प पर ढंग से काम होता तो यहां की हवा दूषित नहीं होती। पर अब तो दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार है, तब भी यह हाल क्यों? ज़िम्मेदारों से सवाल होने चाहिए कि साल भर में उन्होंने क्या किया? देखिए, यह तय है कि किसानों को नवंबर अंत तक हर हाल में गेहूं की बुआई करनी होती है, इसलिए धान की कटाई के बाद बचे हुए हिस्से से जल्द छुटकारा पाने के लिए उसे जलाकर खत्म करना उनके लिए सबसे आसान उपाय है।

धान की कटाई और गेहूं की बुआई के बीच किसानों के पास सिर्फ 15 से 20 दिनों का ही वक्त होता है, जिसमें उन्हें हर हाल में पराली हटाकर खेत को बीज बोने के लिए तैयार करना होता है। विकल्पों की कमी की वजह से वे पराली जलाने पर मजबूर हो जाते हैं। फसल के अवशेषों को हटाने के लिए सरकार की तरफ से सब्सिडी पर मशीनें उपलब्ध कराने की कोशिशें तो हुईं लेकिन इनकी कीमत एक बड़ी बाधा है और संख्या भी इतनी नहीं कि ये सारे किसानों तक पहुंच पाएं। पराली के कई विकल्प भी सुझाए गए कि इससे जैविक खाद, बिजली और ईंधन के साथ ही इको फ्रेंडली डिस्पोज़ेबल बर्तन तक बनाए जा सकते हैं। लेकिन एक-दो स्टार्टअप्स के आगे आने से बात नहीं बनेगी। धान की कटाई के बाद 15 दिनों के भीतर सारे खेतों से पराली निकाल ली जाए, इसके लिए समूचे तंत्र को जुटना होगा।

बहरहाल, एक बार फिर दो महीनों तक खूब हल्ला मचेगा। नेता और अफसर बैठकें करेंगे। समस्या का उपाय खोजने के दावे किए जाएंगे। अगले साल उन दावों की पोल खुलेगी तो दोषारोपण किए जाएंगे। फिर सारे नियम-कायदे आम जनता पर थोप दिए जाएंगे, ज़िम्मेदारों की कोई जवाबदेही तय नहीं होगी। दो महीनों तक देश दुनिया के अखबार दिल्ली के काले आसमान की तस्वीरें छापते रहेंगे। चंद महीनों में मौसम बदलने पर ये काला धुआं छंट जाएगा और एक बार फिर हम ये सब भूलकर आगे बढ़ जाएंगे। ज़िम्मेदार भी अगले अक्टूबर तक के लिए चैन की नींद सो जाएंगे।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स