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DevBhoomi Insider Desk
• Tue, 21 Mar 2023 12:26 pm IST


हलवा और सोहारी


फैजाबाद से चालीस किलोमीटर दूर हैरिंग्टनगंज है, जो सब्जी उगाने वालों का गढ़ है। अवध में अभी तक मैंने सबसे बड़ा ब्रह्मभोज यहीं देखा। सब्जी महंगी बिकती है, बीज उससे भी ज्यादा महंगे, तो यहां के लोग ठीक-ठाक पैसे वाले होते हैं। इनके ब्रह्मभोज का न्योता बड़ी दूर-दूर तक जाता है। जिस ब्रह्मभोज में मैं शामिल हुआ, उसका न्योता कुछ यूं गया था- ‘इधर इलाहाबाद तक और उधर गोरखपुर-देवरिया तक जितने सब्जी के किसान हैं- सबको न्योता है।’ उस दिन पंद्रह हजार से भी ज्यादा लोग भोज में शामिल हुए। खाने में पूरी थी, जिसे अवध में सोहारी कहते हैं और जिसकी महक कम से कम तीन गांव तक पहुंचती है। साथ में तीन-चार तरह की सब्जी, पुलाव, दाल, चटनी-अचार और सलाद वगैरह। मगर जो लोग सब्जी उगाने को छोटा काम मानते हैं और गेहूं-धान या बड़ी हद गन्ना उगाते हैं, उनके ब्रह्मभोजों में कद्दू या परवल-पूरी ही मिलती है। मीठे के नाम पर पिसी हुई शक्कर, जिसे ढेर सारे पानी मिले मट्ठे में घोलकर लोग पीते हैं, फिर और-और की रट लगाते हैं।

ब्रह्मभोज से पहले गूला खोदा जाता है। गूला, यानी गहरा गोल गड्ढा, जिसमें ऊपर कड़ाह चढ़ते हैं और नीचे आग लगती है। आग लगाने से पहले गूले की पूजा होती है। दावत देने वाला प्रार्थना करता है कि हे अग्निदेव! आज सबको स्वादिष्ट भोजन प्रदान करने की कृपा करें। असम के नलबाड़ी में अन्नप्राशन संस्कार के जिस ब्रह्मभोज में पिछले दिनों मैं शामिल हुआ, वहां भी गूले खोदे गए। अवध के गूलों की तरह वहां भी इन्हें गूला-गोला ही कहते हैं। हमारे यहां आमतौर पर दो गूले ही खोदे जाते हैं, नलबाड़ी में तीन गूले खोदे गए थे। अवध के लोग आमतौर पर वेज होते हैं तो उनका दो गूले में काम चल जाता है। असम में लोग आमतौर पर नॉनवेज होते हैं, इसलिए वहां कम से कम तीन गूले चाहिए होते हैं। एक पर तो लगातार पानी ही गर्म होता रहता है, बाकी दो पर वेज-नॉनवेज दोनों मिला-जुला कर बनता है। आग जलाने से पहले यहां भी इन गूलों की पूजा हुई, फिर कड़ाह रखने के बाद भी।


सब्जी उगाने वाले अवध के लोगों का मेन्यू तो ऊपर बता दिया। नलबाड़ी में आयोजित जिस ब्रह्मभोज में मैं शामिल था, उसमें चावल, पुलाव, असमी मटन, मछली, मुरी घोंटो (मछली का सिर तोड़कर उसमें 2-3 तरह की दाल डालकर बनाई गई डिश), पनीर वेज, मिक्स वेज, बैंगन भाजा, पपीते का हलवा, चिली चिकन, सेवई बनी थी। हलवा, सेवई और बैंगन भाजा गैस पर बना था, बाकी सारी चीजें गूले पर। अवध की सोहारी रोटी जितनी बड़ी होती है, यहां पूरियां सामान्य साइज में थीं तो वह महक नहीं थी। यह एक गंवई इलाका था तो गांव के स्त्री-पुरुष भी मेरे गांव की तरह सहयोग में शामिल थे- भोजन तैयार करने से लेकर परोसने तक। 11 पांत बैठी, हरेक में तकरीबन सौ लोग। मैं दूसरी में बैठा। दाल और बैंगन भाजा जादुई था। पपीते का हलवा मैंने कॉपी कर लिया है, अवध के धान-गेहूं उगाने वाले भी इसे अपना सकते हैं। हालांकि वहां लोग और-और की रट मुरी घोंटो के लिए लगा रहे थे।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स