आइए, आज गुवाहाटी की एक साप्ताहिक बाजार का नजारा करते हैं। यह साप्ताहिक बाजार गुवाहाटी के एकदम कोने के इलाके पंजाबाड़ी में लगी है। इन दिनों मैं यहीं पर हूं। हरी-भरी सब्जियां देखने में जरूरत से ज्यादा हष्ट-पुष्ट हैं। जितनी भीड़ सब्जी के सामने है, उतनी ही भीड़ मछली की भी दुकान के सामने है। बाजार में इन दिनों संतरे खूब हैं, मगर नागपुर जैसे इलाकों से असम आते-आते इनमें कोई आकर्षण नहीं बचा। केला यहां घर-घर में होता है, फिर भी बाजार में सौ रुपये दर्जन बिक रहा है। इसी बीच हमें साबुन की दुकान दिखी। क्रिकेट बॉल जैसा साबुन, जिससे यहां अस्सी-नब्बे के दशक में पैदा हुए लगभग हर बच्चे की याद जुड़ी है। इसका नाम है जयश्री। स्थानीय लोग इसे घेला साबुन कहते हैं। घेला यानी पत्थर। आगे बढ़े तो तरह-तरह की सूखी मछलियां थीं। यहां भीड़ न के बराबर थी, इसकी वजह से दुकानदार झल्लाया बैठा था।
कुछ और आगे बढ़े तो कत्थई रंग का गुड़ दिखा। इन्हें मैं अच्छे से पहचानता हूं। आखिर मैंने अमिताभ बच्चन और नूतन की फिल्म सौदागर जो देख रखी है। यह खजूर से बना गुड़ है। फिल्म में नूतन के बनाए खजूर के गुड़ पर पूरा बाजार टूट पड़ता था, मगर यहां लोग उसकी जगह गन्ने से बने गुड़ पर टूटे पड़ रहे हैं। आगे तरह-तरह के चाकू बिक रहे हैं। तांबूल छीलने वाले चाकू, घास काटने वाली तलवार, आड़े-तिरछे, लंबे-छोटे गड़ासे तो हैं ही, खुखरी भी खूब है। मैंने एक खुखरी उठा ली और उसकी मूठ के पास बने खांचे को दिखाकर अपने दोस्त भास्कर को बता रहा हूं कि इसी से खिंचकर आंतें बाहर आ जाती हैं। मेरा असमिया दोस्त भास्कर गर्व से कहता है कि कारगिल की लड़ाई में हमने इन्हीं से पाकिस्तानियों को मार भगाया था। पाकिस्तानी सैनिकों की कल्पना में खुखरी तो थी, पर खुखरी का यथार्थ हम लोगों ने ही उनको दिखाया था। उसका दावा है कि आज भी पाकिस्तानी सेना के लोग खुखरी के नाम से कांपते हैं।
कुछ और आगे बढ़े तो शनि मंदिर दिखा। शनि मंदिर अभी तक दिल्ली-एनसीआर में लोगों में अंधविश्वास बढ़ाने के काम आता है। पर जिस तरह से यहां सुदूर मैदानों से संतरे पहुंच रहे हैं तो शनि महाराज का भी यहां आना कोई बड़ी बात नहीं है। मंदिर के सामने हमने पेड़ से तुरंत तोड़ी सुपारी खाई, जिसे यहां तांबूल कहते हैं। मुंह में तांबूल सेट करके हम आगे बढ़े, तो लॉटरी की दुकान लगी थी। बीस रुपये की लॉटरी भोगाली बिहू के दिन खुलेगी। पहला ईनाम बकरी, दूसरा ईनाम बत्तख, तीसरा ईनाम एक बड़ी मछली, चौथा ईनाम एक देसी मुर्गी, पांचवा छोटी मछली, छठां बॉयलर मुर्गी और सांत्वना के लिए ढेर सारे अंडे। बिहू तो मैं यहां नहीं मना पाऊंगा, फिर भी मैंने एक टिकट ले ही लिया। अब चूंकि लॉटरी का टिकट ले लिया है तो सारे के सारे असमिया दोस्त पीछे पड़ गए हैं कि बिना बिहू नाचे वे मुझे दिल्ली वापस नहीं आने देंगे। और तो और, बाजार के दुकानदार भी कह रहे हैं कि यहां वाला बिहू ना देखा तो क्या देखा?
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स