प्रशांत महासागर में टोंगा के पास पानी के भीतर ज्वालामुखी फटने की घटना को करीब नौ महीने हो चुके हैं। इस प्रचंड विस्फोट के प्रभावों का विश्लेषण कर वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि इससे हमारा ग्रह गरम हो सकता है। शोधकर्ताओं ने हिसाब लगाया है कि ‘हंगा टोंगा-हंगा हापाइ’ ज्वालामुखी विस्फोट से भारी मात्रा में राख और गैसों के बाहर आने के अलावा वायुमंडल में 4.5 करोड़ मीट्रिक टन जल भाप भी फैली। इतनी ज्यादा भाप ने वायुमंडल की दूसरी परत- स्ट्रेटोस्फियर में 5 प्रतिशत तक नमी बढ़ा दी।
धरती से 10 से 50 किमी ऊपर वायुमंडल की परत स्ट्रेटोस्फियर कहलाती है। भाप से स्ट्रेटोस्फियर ठंडा होने और सतह के गर्म होने का चक्र शुरू हो सकता है। ये प्रभाव आने वाले महीनों में बने रह सकते हैं। कई वजहों से टोंगा विस्फोट को ऐसी अन्य घटनाओं से अलग माना जा रहा है।
टोंगा का विस्फोट 13 जनवरी को शुरू हुआ था और दो दिन बाद चरम पर पहुंचा था। पृथ्वी पर कई दशकों में देखा गया यह सबसे शक्तिशाली विस्फोट था।
अमेरिका के नैशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के अनुसार विस्फोट 260 किलोमीटर तक फैला। इसने राख, भाप और गैस के ‘स्तंभों’ को हवा में 20 किलोमीटर ऊपर भेज दिया।
साइंस पत्रिका में प्रकाशित नए अध्ययन के अनुसार टोंगा विस्फोट के 24 घंटों के भीतर भाप के खंबे वायुमंडल में 28 किलोमीटर ऊपर तक फैल गए। रिसर्चरों ने उपकरणों की मदद से इन खंबों में पानी की मात्रा का विश्लेषण किया। ये उपकरण मौसम के गुब्बारों से जुड़े थे और इन्हें ज्वालामुखीय धुएं में भेजा गया था।
वायुमंडल में इन उपकरणों के सेंसर तापमान, वायु दाब और सापेक्ष आर्द्रता को मापते हैं। वायुमंडलीय जल वाष्प सौर विकिरण को अवशोषित करता है, फिर इसे गर्मी के रूप में उत्सर्जित करता है।
टोंगा की लाखों टन नमी अब स्ट्रेटोस्फियर में बह रही है। इससे पृथ्वी की सतह गर्म हो रही होगी, पर नहीं पता कि कितनी।
चूंकि भाप अन्य ज्वालामुखीय एरोसोल कणों की तुलना में हल्की होती है और गुरुत्वाकर्षण के खिंचाव से कम प्रभावित होती है, इसलिए इस वॉर्मिंग प्रभाव के घटने में अधिक समय लगेगा और आने वाले महीनो में सतह का गर्म होना जारी रह सकता है।
टोंगा विस्फोट पर पहले के अध्ययन में कहा गया था कि विस्फोट से निकली भाप ओलिंपिक साइज के 58000 स्विमिंग पूलों को भरने के लिए काफी थी। वायुमंडलीय नमी की यह विशाल मात्रा पृथ्वी की ओजोन परत को भी कमजोर कर सकती है।
बड़े ज्वालामुखी विस्फोट आमतौर पर हमारे ग्रह को ठंडा करते हैं। इन विस्फोटों से निकलने वाली सल्फर डाइऑक्साइड पृथ्वी के वायुमंडल की ऊपरी परतों में पहुंच कर सौर विकिरण को अवरुद्ध करती हैं जिससे ग्रह का तापमान कम होने लगता है। पर टोंगा केस में उलटा हो रहा है। अमेरिका के नैशनल साइंस फाउंडेशन अनुसार ज्वालामुखी विस्फोट से निकले चट्टान और राख के कण भी सूर्य का प्रकाश रोककर ग्रह को अस्थायी रूप से ठंडा कर सकते हैं। इस तरह पृथ्वी के अतीत में भी व्यापक और उग्र ज्वालामुखीय गतिविधि ने दुनिया में जलवायु परिवर्तन में योगदान किया होगा। लाखों साल पहले बड़े पैमाने पर जीव-जंतुओं के विलुप्त होने की शुरुआत इन्हीं जलवायु परिवर्तनों के चलते हुई होगी।
हाल के विस्फोटों ने ग्रह को ठंडा करने की ज्वालामुखियों की ताकत दिखाई है। 1991 में फिलीपींस में माउंट पिनाटुबो के विस्फोट से निकले एरोसोल कणों ने कम से कम एक वर्ष के लिए विश्व के तापमान को लगभग 0.5 डिग्री सेल्सियस कम कर दिया था। टोंगा विस्फोट ने लगभग 400,000 मीट्रिक टन सल्फर डाइऑक्साइड छोड़ी जो 1991 के विस्फोट के दौरान माउंट पिनाटुबो द्वारा छोड़ी गई गैस की मात्रा का लगभग 2 प्रतिशत थी। लेकिन पिनाटुबो और जमीन पर होने वाले बड़े ज्वालामुखी विस्फोटों के विपरीत टोंगा समुद्र के अंदर फटा, जिससे भाप के खंबे बन गए। अब यह भाप सभी के लिए चिंता का विषय बन चुकी है।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स