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DevBhoomi Insider Desk
• Tue, 17 Jan 2023 10:51 am IST


OTT में छा गई है हिंग्लिश


भाषा दृश्य में हो, चाहे आंगिक या शाब्दिक- ओटीटी ने कमोबेश सबको बदला है। हैरानी की बात है कि भारत में ओटीटी के कंटेंट का विमर्श केवल गालियों बनाम रियलिस्टिक तक सीमित हो जाता है। हालांकि बदलाव कई स्तरों पर महसूस किया जा सकता है।

जब सिनेमा 3 घंटे से घटकर 90-100 मिनट पर आ गया और दूसरी तरफ टीवी में अनादि अनंत लंबी कथा का दौर था, ओटीटी ने समय सीमा को पुनर्परिभाषित किया। कई निर्देशकों ने खुद को फिर से खोजा, फिर से प्रासंगिक बने। क्षेत्रीय भाषाओं का विस्तार हुआ है। एक सर्वे के मुताबिक, 2024 तक ओटीटी पर रिलीज कंटेंट में हिंदी से अलग भारतीय भाषाओं की भागीदारी 54 फीसदी हो जाने वाली है। इसका मतलब यह भी है कि हिंदी की भागीदारी घट रही है।

होइचोई (बांग्ला) जैसे भाषा केंद्रित ओटीटी की भारतीय सीमाओं से बाहर भी बड़ी मौजूदगी बनी हुई है, वहीं नए ओटीटी स्टेज ने हरयाणवी के बाद अब राजस्थानी में भी अपनी जगह बनानी, तलाशनी शुरू की है। हिंदी फिल्मों की एक खास भाषा ने हिंदी-हिंदुस्तानी का ऊपर से नीचे की तरफ विस्तार किया। अब यह प्रवृत्ति नीचे से ऊपर की तरफ जाती दिखती है, यानी दर्शकों की भाषा से कंटेंट की भाषा बन रही है, पहले लोग सिनेमा से भाषा सीखते थे।

हिंग्लिश का चलन
पिछले दो दशकों से भाषा के स्तर पर समाज में एक बदलाव हिंदी पट्टी में यह भी आया है कि मध्यम वर्ग की पढ़ाई की भाषा हिंदी से अंग्रेजी हो गई है। इससे हिंदी की जगह दूसरी भारतीय भाषाओं की खास जगह में इजाफा हुआ है। पढ़ाई में हिंदी घट रही है तो कम से कम दो प्रभाव हैं- घरों में बोली जाने वाली हिंदी से अलग भारतीय भाषाओं का प्रयोग और कामकाज-लोक व्यवहार में हिंग्लिश या अंग्रेजी का प्रयोग। तो इसका असर मनोरंजन जगत पर भी स्वाभाविक ही है।

किसी भी भाषा का शुद्धतावादी प्रयोग अब पिछली सदी की बात है। सच में भक्तिकाल के संतों की सधुक्कड़ी भाषा फिर से लौट कर आ रही है। जनभाषा और शास्त्र भाषा के पुराने वर्गीकरण को फिर से देखने-समझने, पुनर्परिभाषित करने का समय चल रहा है। कह सकते हैं कि यह मनोरंजन जगत का ‘रेणु काल’ है। यानी जिस आंचलिकता को हिंदी साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु ने जगह दिलाकर शास्त्रीय अभिजात्यता को बैकफुट पर ला दिया था, वह भारत के मनोरंजन जगत में लाने में कई दशक लग गए और इसका रेणु जैसा श्रेय ओटीटी को जाता है।

सामाजिक राजनीतिक दृष्टि से यह लोकतंत्रीकरण बेहद सुखद है, लेकिन भाषाशास्त्री चिंतित हो सकते हैं कि कैसी भाषा के संस्कार नई पीढ़ी को दे रहे हैं और अगली पीढ़ियों का भाषा संसार कहां पहुंचकर सांस लेगा। नई सदी की दूसरी दहाई आते-आते मुंबई के मनोरंजन जगत के ऐसे दिन भी आए कि मुख्यधारा की, बड़े कैंप की फिल्मों की भाषा का इतना अंग्रेजीकरण हो गया कि कई बार लगता, फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इसे हिंदी फिल्म का सर्टिफिकेट कैसे दे दिया। संवादों में पचास फीसदी से ज्यादा अंग्रेजी वाक्य, बाकी भी अधिकांश हिंग्लिश!

कुछ समय पहले, एक राष्ट्रवादी रिश्तेदार मुझसे भिड़ गए कि बॉलिवुड की भाषा कोई इस राष्ट्र की भाषा है? उर्दू ही उर्दू है। तो मैंने उनसे कहा कि आप उर्दू की बात करते हो, पिछले डेढ़ दशक की मुंबई की फिल्मों में हिंदी भी ढूंढने से मिलती है, जैसे होस्टल की दाल में पानी ज्यादा होता है, दाल कम, गोया दाल का सूप लगती है। तर्क से उनकी सहानुभूति लेने (सहानुभूति देने से ईगो संतुष्ट होता है) के लिए कहा, ‘सोचिए, इतना अंग्रेजीकरण हुआ कि मेरे जैसे हिंदी पट्टी से गए, हिंदी भाषी, हिंदी माध्यम में पढ़े व्यक्ति के लिए हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में संवाद लिखने के अवसर बेहद कम होते जा रहे हैं।’ सामने वाले को मजबूर देखकर रिश्तेदार तर्क में हारना खुशी से कुबूल कर लेते हैं।

देशज शब्दों का जोर
ओटीटी से यह भी हुआ है कि मुंबई के मनोरंजन जगत में अंग्रेजी का दबदबा कम होता दिखाई दे रहा है। ओटीटी के फिक्शन शोज में देशज भाषा के कुछ उदाहरण दिए जाएं तो ‘पाताल लोक’, ‘खाकी’, ‘महारानी’, ‘पंचायत’ की भाषाओं को देखना सुनना चाहिए, ये सब राजनीतिक या अपराध की कथाएं हैं। भारत के सामाजिक ताने-बाने की भाषा के लिए ‘रन अवे लुगाई’, ‘शिक्षा मंडल’ और ‘गुल्लक’ को याद करना चाहिए। जब धूसर किरदारों का विस्तार हुआ है, उनकी भाषा का भी विस्तार होना स्वाभाविक ही है। ओटीटी के फिक्शन शोज में लड़कियों और लड़कों की भाषा में अंतर खत्म होता भी दिखाई दे रहा है। यह भी स्त्री-पुरुष समानता का एक रूप है। यह केवल गालियों का मसला नहीं है, जेंडरनिरपेक्ष भाषा का विकसित होना, उसका स्वीकृत होना है। इस पहलू की तरफ कम लोगों की नजर जा रही है। ओटीटी के फिक्शन शोज से मनोरंजन जगत की भाषा में एक बदलाव यह भी आया कि लिरिकल भाषा के लिए गुंजाइश न्यूनतम हो गई। सीधे शब्दों में गीत कम होते जा रहे हैं। ओटीटी शोज बनाते हुए लंबे मोंटाज को जब संगीत से कन्विंसिंग बनाना संभव नहीं लगता या थीम सॉन्ग के अलावा गीतों को कम ही सोचा जाता है।

निरर्थक होती बहस
जब देश में ऐसा समय चल रहा हो कि बुद्धिजीवी ट्रोलर्स की भाषा बोलने लगे हों और कलाकार शुद्ध सियासी जबान तो ‘भाषा कैसी है, कैसी होनी चाहिए’ की बहसें भी निरर्थक ही मानी जाएंगी। भाषा बेशक बहता नीर है, पर बहते पानियों पर हम बांध भी बनाते हैं, नहरें भी निकालते हैं, बिजली भी बनाते हैं, बहते पानियों में जलजले भी आते हैं। बहते पानियों के किनारे सभ्यताएं फूलती हैं, बहते पानियों के सुनामियों से तबहियां भी आती हैं।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स