त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार चार साल पूरे करने का जश्न मनाने की तैयारियां कर रही थी। राजधानी में होर्डिंग लग चुके थे। 18 तारीख को देहरादून समेत समूचे राज्य में विधानसभा क्षेत्रवार जलसे कराने का एलान किया जा चुका था। मुख्यमंत्री पूरे आत्मविश्वास से बजट सत्र के लिए शीतकालीन राजधानी गैरसैंण पहुंचे। वहां बजट भाषण के दौरान 4 मार्च को नई कमिश्नरी का एलान करके सबको चौंका दिया। भारी बहुमत वाली सरकार पर किसी तरह के संकट का आभास न था। यहां तक कि मुख्यमंत्री और उनकी सरकार को भी इस सियासी तूफान का अंदाजा नहीं था। उत्तराखंड की विधानसभा के कुल 70 में से 57 विधायकों के भारी बहुमत वाली सरकार ने कभी सोचा तक नहीं कि हालात चार दिन में पलट जाएंगे। त्रिवेंद्र सिंह रावत को आखिरकार चार साल पूरा करने का जश्न मनाने का मौका भी नहीं मिल सका और उन्हें मुख्यमंत्री पद खोना पड़ा। उत्तराखंड के लिए हालांकि, यह नया अनुभव नहीं है। 21 साल में इस राज्य ने 10 मुख्यमंत्री देख लिए हैं। 11वें मुख्यमंत्री की नियुक्ति आज होने की संभावना है। भाजपा को करीब 11 साल राज्य में सरकार चलाने का मौका मिला। इस अवधि में पार्टी ने राज्य में पांच मुख्यमंत्रियों का प्रयोग कर डाला। भाजपा का एक भी मुख्यमंत्री अब तक पांच साल स्थिर सरकार नहीं दे पाया। इसके पीछे गुटीय राजनीति और असंतोष प्रमुख कारण रहे। भाजपा के मुख्यमंत्रियों में त्रिवेंद्र सिंह रावत को सबसे अधिक करीब चार साल सत्ता में रहने का मौका मिला। करीब तीन चौथाई बहुमत वाली सरकार के मुख्यमंत्री को ऊपरी तौर पर कोई खतरा नजर नहीं आ रहा था। फिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के जमाने की भाजपा में आम धारणा यह बनी है कि यहां मुख्यमंत्री बनाए जाते हैं, बदले नहीं जाते। त्रिवेंद्र सिंह रावत को पार्टी हाईकमान में अच्छी पकड़ वाला नेता भी माना जाता रहा है। अब सवाल यह है कि ऐसी सुविधाजनक स्थिति में मुख्यमंत्री को कुरसी गंवानी क्यों पड़ी? दरअसल, तीन साल पूरा करते-करते कई विधायक सरकार से शिकायत करने लगे थे। सबसे पहले नौकरशाही को लेकर विधायकों की नाराजगी सामने आई। कुछ जिलाधिकारियों और सचिवालय के नौकरशाहों के रवैये पर पहले विधायकों और फिर मंत्रियों ने सवाल उठाए। कई अफसर मंत्रियों की बात भी सुनने को तैयार नहीं थे। खुद कैबिनेट मंत्री और सरकार के प्रवक्ता मदन कौशिक, सतपाल महाराज, डिप्टी स्पीकर रघुनाथ सिंह चौहान, राज्य मंत्री रेखा आर्या को खुले तौर पर अफसरों को चेतावनी देनी पड़ी। कई अफसर तो मंत्रियों की बैठक में नहीं आ रहे थे। भाजपा के वरिष्ठ विधायक विशन सिंह चुफाल, पूरन फत्र्याल और राजेश शुक्ला आदि ने राज्य सरकार और पार्टी के स्तर पर ऐसे कई मामले उठाए, लेकिन इन सबको अनसुना कर दिया गया। हरिद्वार के एक विधायक ने खुलकर सरकार के खिलाफ बयान दिए।
सरकार के कुछ वरिष्ठ अफसर मनमाने आदेश कर रहे थे या फिर मनमाने तरीके से उन्हें बदल रहे थे। कुछ जूनियर अफसर सीनियर अफसरों पर भारी पड़ते दिखे। आम जनता में नौकरशाही के बेलगाम हो जाने का संदेश गया। मुख्यमंत्री के हाईकमान में अच्छे संपर्कों की चर्चा अक्सर हुई, लेकिन दिल्ली में प्रदेश से जुड़े नेताओं से सामंजस्य बनाने में लापरवाही बरती गई। एक उदाहरण हाल का ही है। राज्यसभा सदस्य और पार्टी के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी अनिल बलूनी ने पीयूष गोयल से मिलकर उत्तराखंड के लिए दो नई ट्रेनें मंजूर करवाईं। एक दिल्ली से टनकपुर और दूसरी दिल्ली से कोटद्वार। दोनों मौकों पर सरकार ने कोई उत्साह नहीं दिखाया, बल्कि ट्रेन की शुरुआत के दिन कोटद्वार का नाम बदलकर कण्वनगरी कर दिया गया। इसका संदेश यह गया कि सरकार ने ट्रेन चलाने के आयोजन को काउंटर करने के लिए ऐसा किया है। माना जा रहा है कि यह मुद्दा भी पार्टी के शीर्ष नेताओं तक पहुंचाया गया। भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी सरकार के रवैये को लेकर संतुष्ट नहीं दिख रहा था। विधायकों, मंत्रियों की नाराजगी के साथ संघ से सरकार की कथित दूरी का अर्थ है कि त्रिवेंद्र रावत की सरकार ‘सबका साथ’ का नारा अपनी ही पार्टी में लागू नहीं कर सकी। रावत को अंदर ही अंदर चारों ओर से घेरा जा रहा था और उन्हें भनक तक नहीं लगी। त्रिवेंद्र सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि वह अपने काम दिखा नहीं पाई। इस सरकार ने 2018 में धर्मांतरण करके बिना बताए शादी करने पर रोक का कानून बना दिया था। पर उसके करीब दो साल बाद लव जेहाद के खिलाफ ऐसा ही कानून बनाकर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने देश भर में खूब प्रचार पा लिया, पर त्रिवेंद्र सरकार का राज्य से बाहर जिक्र तक नहीं हुआ। मीडिया के एक हिस्से में उत्तर प्रदेश को ऐसा कानून बनाने वाला देश का पहला प्रदेश बताया जा रहा था, जबकि हिमाचल प्रदेश ऐसा कानून 2006 से पहले ही बना चुका है। उत्तराखंड के हर आदमी को पांच लाख का मुफ्त इलाज देने से लेकर किसानों-बागवानों के लिए नई योजनाएं बनीं। लेकिन लचर प्रचार तंत्र के कारण लोगों तक ये बातें ठीक से नहीं पहुंचीं। शीतकालीन राजधानी बनाने, बोर्डों, निगमों में अध्यक्ष, उपाध्यक्षों की नियुक्ति और गैरसैंण को कमिश्नरी बनाने जैसे बड़े फैसले करते वक्त रावत ने विधायकों और पार्टी संगठन के बड़े नेताओं को विश्वास में नहीं लिया। इसका असर यह हुआ कि नई कमिश्नरी में अल्मोड़ा को शामिल करने केविरोध केकेंद्र में मुख्यमंत्री खुद आ गए। नए मुख्यमंत्री के चुनाव के लिए आज विधायक दल की बैठक होने जा रही है। अगले सीएम के पास काम करने के लिए दिसंबर तक का समय होगा। दिसंबर में चुनाव आचार संहिता लग जाएगी। सबसे अहम सवाल है कि जो चार साल में नहीं हो पाया, क्या नए मुख्यमंत्री नौ माह में उसे कर पाएंगे? असंतुष्ट विधायकों को मनाकर उनका सहयोग लेना, अफसरशाही को नियंत्रित करके उससे तेजी से काम लेना टेढ़ी खीर है। नए मुख्यमंत्री तेजी से कामकाज कर संदेश नहीं दे पाए, तो आम जनता के बीच धारणा बनाना कठिन हो जाएगा। सबसे खास बात यह है कि नए मुख्यमंत्री को प्रदेश की जनता के बीच शुरुआती एक माह में ही उत्साहजनक प्रदर्शन करना होगा। अगर वह विधायक दल, पार्टी और मतदाताओं के बीच ‘सबका साथ’ के नारे का संदेश देने में सफल हो गए, तो भाजपा में नए नायक बन जाएंगे।
सौजन्य – हिंदुस्तान