आई गॉट स्मैश्ड इन बॉम्बे सिटी (मुंबई शहर ने मुझे ध्वस्त कर दिया)… वह एकदम टेढ़ा-मेढा सा कप था, जगह-जगह से इस कदर पिचका और उभरा हुआ कि कप की तरह इस्तेमाल करना तो दूर, उसे कप मानना भी मुश्किल था। पर था वह कप ही जिस पर ये पंक्तियां लिखी हुई थीं। वह कप मुझे ऐसे कुछ करीबी दोस्तों ने गिफ्ट किया था जिनका परम कर्तव्य होता है मुसीबत में पड़े दोस्त की इस तरह से मदद करना कि उससे न रोते बने और न हंसते। यह कप मुझे मेरे एक जन्मदिन के मौके पर दिया गया था और तब दिया गया था जब मैं न खुद को सुहा रहा था, न यार दोस्तों की महफिल में ही सुकून पा रहा था।
नब्बे के दशक के मध्य की बात होगी। मुंबई पहुंचे चार-पांच साल हो चुके थे। यानी कोई भी नया और बड़ा शहर जिस तरह के शुरुआती झटके देता है, आश्चर्य, कौतुक और विस्मय पैदा करता है, उन सबसे गुजर चुका था। मगर बाहरी बदलाव और चमक-दमक के जब आप आदी हो जाते हैं, तब वे अलग तरह के सदमे आपकी राह में आते हैं जो आपको तोड़ डालने, टुकड़े-टुकड़े कर देने, ध्वस्त कर देने की क्षमता रखते हैं। जरूरी नहीं कि ये किसी बड़ी घटना के रूप में सामने आएं। बस कुछ ऐसा होता है कि आप जिसे मन-प्राण से अपना मान रहे होते हैं, बहुत हौले से किसी दिन अहसास होता है कि वह आपको बस बर्दाश्त कर रहा है शालीनतावश। या इसका उलटा भी होता है कि जिसने आपको सबसे करीबी, विश्वस्त और अपना मान रखा है, उसे यह महसूस होता है कि आपने हजारों किलोमीटर दूर बैठे कुछ लोगों को, उनकी सोच को, उनकी भावनाओं को इस कदर सीने से चिपका रखा है कि इस नए बनते अपनेपन के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती। अब चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर, क्या फर्क पड़ना है? शक्ल, आकार सब खरबूजे का ही बिगड़ता है। मजे की बात यह कि इस प्रक्रिया से गुजरता हर शख्स खरबूजा ही होता है, कोई चाकू नहीं होता। तो उन दिनों मैं खरबूजा बना हुआ था और खुद के कटने-छंटने की पीड़ा से इस तरह गुजर रहा था कि लगता नहीं था किसी को उस तकलीफ की भनक भी है।
उस कप को लिये हंसते-मुस्कुराते, टॉन्ट मारते दोस्त उस शाम मन में तरह-तरह की भावनाएं पैदा कर रहे थे, लेकिन एक बात स्पष्ट हो चुकी थी कि ये सब मेरी स्थिति देख-सुन-समझ रहे थे और उससे अछूते नहीं थे। दूसरा सवाल उस कप ने मन में कुछ दिनों बाद पैदा किया। वह यह कि अगर ऐसा कप बनाया गया और वह बाजार में आया तो इसका मतलब ही यह है कि मैं इन हालात और ऐसी परेशानियों से गुजरने वाला कोई अकेला शख्स नहीं। और, तकलीफ कैसी भी हो अगर आप खुद को अकेला न पाएं तो वह कभी दलदल का रूप नहीं लेती, उससे उबरने की उम्मीद बनी रहती है।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स