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DevBhoomi Insider Desk
• Wed, 7 Sep 2022 2:57 pm IST


हमेशा लो प्रोफाइल रहने वाला एक चेयरमैन


जब अटकलबाजियों के लंबे दौर के बाद टाटा ग्रुप में रतन टाटा ने सायरस मिस्त्री को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। तब हमारे सहयोगी अखबार इकॉनमिक टाइम्स ने हेडिंग लगाई- ‘मिस्ट्री एंड्स, मिस्त्री बिगिंस’, लेकिन वास्तव में मिस्त्री कभी ढंग से टाटा संस में कामकाज शुरू नहीं कर पाए। और कुछ वर्षों में टाटा ग्रुप ने उन पर जताया विश्वास वापस ले लिया।

रतन टाटा की नुमाइंदगी में टाटा ग्रुप दुनिया भर में एक इज्जतदार ब्रैंड बना। विदेश में बड़ी कंपनियां ग्रुप ने खरीदीं, जिससे इसमें मदद मिली। मसलन, टाटा स्टील ने कोरस को खरीदा। ध्यान रहे, इस अधिग्रहण ने घरेलू निवेशकों को टाटा स्टील की ओर आकर्षित नहीं किया। लेकिन रतन टाटा के बोल्ड फैसलों ने न केवल टाटा ग्रुप के लिए विदेश से पूंजी जुटाना आसान बनाया, बल्कि इंडिया इंक में भी उसकी चमक बढ़ा दी।

लीडर या मैनेजर

अगर रतन टाटा अपने ग्रुप और भारतीय कारोबारी समुदाय में एक दूरदर्शी लीडर की भूमिका में थे, तो मिस्त्री बस एक मैनेजर ही बनकर रह गए। लो प्रोफाइल मिस्त्री ने चेयरमैन के रूप में अपने चार सालों के कार्यकाल में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की। वैसे, नैनो कार की नाकामी का दोष मिस्त्री को नहीं दिया जा सकता। निश्चित रूप से एक किफायती और आधुनिक ऑटोमोबाइल का विचार ताजा, साहसिक और सुविचारित था। मगर कार के सोशल स्टेटस ने पूरी परियोजना को कमजोर कर दिया। आखिर, कोई भी ‘गरीब आदमी की कार’ का मालिक नहीं होना चाहता। जब एक दोपहिया सवार चारपहियों में अपग्रेड करता है, तो वह दोपहिया वाहन से जुड़े इनकम ग्रुप और सोशल स्टेटस को भी पीछे छोड़ना चाहता है। टाटा ग्रुप ने नैनो के रूप में एक अच्छी कार पेश की थी। इसने ट्रांसपोर्ट के तरीके को अपग्रेड किया, लेकिन इसके साथ सोशल स्टेटस का टैग जुड़ गया था जो सब बातों पर भारी पड़ा।

पीछे हटना मुश्किल

जापान के एनटीटी-डोकोमो के लिए अपने वित्तीय दायित्व का अनादर करना वह बिंदु था, जहां मिस्त्री ने गंभीर गलती की। जापानी दिग्गज ने टाटा के टेलिकॉम वेंचर में इस शर्त के साथ पैसा लगाया था कि अगर वह चाहे तो तय वर्षों के बाद अपने शुरुआती निवेश के आधे मूल्य पर बाहर निकल सकता है। इस वेंचर ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया, और एनटीटी-डोकोमो ने तय समझौते के मुताबिक टाटा को अपनी हिस्सेदारी बेचकर इस वेंचर से निकल जाने का फैसला किया। टाटा को इस समझौते का सम्मान करना चाहिए था। लेकिन मिस्त्री के नेतृत्व वाले टाटा ग्रुप ने तकनीकी सवाल उठाते हुए इसमें अड़ंगा लगाया। वह एक तरह से समझौते से मुकर गया। मामला अंतरराष्ट्रीय पंचाट में गया और फैसला टाटा के खिलाफ हुआ। इस प्रकरण से टाटा की काफी किरकिरी हुई। अगर कोई विदेशी कंपनी किसी कॉन्ट्रैक्ट को लेकर टाटा ग्रुप पर भरोसा नहीं कर सकती है, तो इससे वैश्विक हलकों में न केवल टाटा की साख पर सवाल उठता है, बल्कि आम तौर पर इंडिया इंक की भी छवि खराब होती है।

वापस ली गई महानता

2016 में, एक बोर्डरूम तख्तापलट में, मिस्त्री को टाटा के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। उन्होंने इसके खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने का फैसला किया। वह कोर्ट में गए और टाटा ग्रुप के इस फैसले को कई आधारों पर चुनौती दी। मगर सुप्रीम कोर्ट ने न केवल मिस्त्री के आरोपों को खारिज कर दिया, बल्कि उनके आचरण पर कुछ कठोर टिप्पणियां कीं। हालांकि बाद में ये टिप्पणियां वापस ले ली गईं।

महानता के बारे में एक दिलचस्प उक्ति है। इसमें कहा गया है कि कुछ लोग महानता लेकर पैदा होते हैं। कुछ अपने जीवनकाल में अपने प्रयासों की बदौलत महानता हासिल करते हैं। लेकिन एक और श्रेणी ऐसे लोगों की होती है, जिन पर महानता थोप दी जाती है। यहां सोचने वाली बात यह है कि अगर कोई व्यक्ति इस स्थिति में है कि किसी पर महानता थोप सके, तो वह जरूरी समझने पर उसे वापस भी ले सकता है। खासकर, जब उसे लगने लगे कि महानता पाने वाला इसकी पात्रता नहीं साबित कर पा रहा। सायरस मिस्त्री इसी सबक की याद दिलाते हैं।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स