पिछले दिनों दिल्ली में एक डिजिटल चैनल के युवा पत्रकार ने खुदकुशी कर ली। वैसे तो हर आत्महत्या झकझोर देती है, लेकिन इसमें जो बेहद दुखद पहलू सामने आया, वह यह कि यह पत्रकार सोशल मीडिया माध्यमों से बार-बार इशारा कर रहा था कि वह गहरे डिप्रेशन में है। उसने एक पोस्ट में लिखा था, काश मैं किसी को बता पाता कि मुझे बाहर से किसी के आ जाने का डर नहीं है, बल्कि मुझे तो इस बात की फिक्र है कि किसी रोज कोई जुगनू सीढ़ियों का रास्ता नहीं पकड़ पाया और बेचैनी में खिड़की के रास्ते अंदर से बाहर की तरफ कूद गया तो क्या होगा? इन इशारों के बावजूद उसे किसी ने नहीं संभाला। आखिर रेत की मानिंद एक जिंदगी हाथ से फिसल गई।
उसके बाद बार-बार ये खयाल आया कि उसकी फ्रेंडलिस्ट में न जाने कितने लोग थे, लेकिन फिर भी वह इतना अकेला कैसे हो गया? क्या ऐसी फ्रेंडलिस्ट के कोई मायने हैं? क्या वाकई हमारे दोस्तों की संख्या हजार दो हजार है, जैसा कि हमारी फ्रेंडलिस्ट सजेस्ट कर रही है? या इस सोशल मीडिया के दौर ने फ्रेंड शब्द के मायने ही बदल दिए हैं। खुद से एक सवाल करिए। आपके वाकई कितने दोस्त हैं? और आप वाकई कितनों के दोस्त हैं? जवाब आपको मिल जाएगा।असलियत तो ये है कि हमारी फोनबुक में कॉन्टैक्ट्स की संख्या बेशक कितनी भी बढ़ गई हो, पर हमने सही मायने में बात करना बंद कर दिया है। वक्त ही नहीं है हमारे पास। न अपने लिए, और न दूसरों के लिए। हमारे किसी अपने के अंदर कोई गुबार भरा हो तो हम उसे सुनने के बजाय भागने लगते हैं। ऐसे ही जब हमारे अंदर कोई गुबार भरता है, तो हम किसी को ढूंढ नहीं पाते। तब सब हमसे भागते नजर आते हैं। हमने तकनीकी तरक्की तो कर ली है, लेकिन इंसानी तरक्की अब भी हमसे कोसों दूर है। डब्ल्यूएचओ कहता है कि दुनियाभर में हर साल 8 लाख से ज्यादा लोग खुद की जान ले लेते हैं। 2021 में अकेले भारत में 1.64 लाख लोगों ने आत्महत्या कर ली। इनमें सबसे ज्यादा 15 से 25 साल के हैं। उसके बाद 30 से 44 साल के। 15 से 29 साल वाले वर्ग में तो आत्महत्या ही मौत का चौथा सबसे बड़ा कारण है। अब आप सोचिए कि कितनी बड़ी विडंबना है। जिनकी फ्रेंडलिस्ट जितनी बड़ी है, वही सबसे ज्यादा उस मोड़ पर पहुंच रहे हैं, जहां खड़े होकर उन्हें अपने लिए खुदकुशी के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखता।
थोड़ी खुदगर्जी हमें छोड़ देनी चाहिए। अपने करीबियों, दोस्तों को सुनने का वक्त निकाल लेना चाहिए। क्या पता कब कोई इशारा पकड़ में आ जाए और हमें मौत के मुहाने खड़ी कोई जान बचाने का मौका मिल जाए। और थोड़ी खुदगर्जी पाल भी लेनी चाहिए। मन का गुबार निकालना सीख लेना चाहिए। जिंदगी इतनी सस्ती नहीं कि उसे हाथ से फिसल जाने दें।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स