एक समय था जब यूरोपीय इकॉनमी के लिए भी ‘मर्कोजीवाद’ (पूर्व जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल और फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति निकोलस सार्कोजी के साझा आर्थिक सिद्धांत के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला शब्द) एक मॉडल सा बन गया था। हालांकि अमेरिका में आए ‘सब-प्राइम’ क्राइसिस के बाद जब यूरो जोन की इकॉनमी को झटके लगे और ‘ब्रेक्जिट’ हुआ तो इसका प्रभाव भी कमजोर पड़ा। यहां सवाल यह है कि उस दौर में ये देश जिन चीजों का विरोध कर रहे थे, उन्हीं का आज समर्थन क्यों कर रहे हैं। सवाल यह भी है कि रूस-यूक्रेन युद्ध ने यूरोप को कितना और किस तरह से प्रभावित किया? क्या यह युद्ध जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों के लिए ‘टर्निंग पॉइंट’ या ऐतिहासिक मोड़ माना जा सकता है?
नई जियो-पॉलिटिक्स
पिछले दिनों एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में जर्मन चांसलर ओलाफ शोल्ज और फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने एक कॉमन नजरिया रखा। इसमें यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद के दौर को ओलाफ शोल्ज ने जर्मनी के लिए ‘जि़टेनवेन्डे’ यानी ‘ऐतिहासिक मोड़’ बताया है। सवाल है कि यूक्रेन पर रूस के हमले की तारीख (24 फरवरी 2022) क्या वास्तव में जर्मनी के लिए टर्निंग पॉइंट थी? क्या इस तारीख से जर्मनी के लिए नई जियो-पॉलिटिक्स की शुरुआत माना जा सकता है? मैक्रों ने फ्रांस के लिए भी जर्मनी जैसी ‘शिफ्टिंग’ का संकेत दिया, जिसके दो पहलू हैं।
पहला, यूक्रेन को नैटो की मेंबरशिप दी जाए।
दूसरा, पूरब और दक्षिण में यूरोपियन यूनियन की सीमाओं का विस्तार हो।
ध्यान रहे, कुछ समय पहले तक फ्रांस किसी भी समूह में नए मेंबर्स को शामिल करने को लेकर संदेह भरा नजरिया रखता था, लेकिन अब यूरोपियन यूनियन और नैटो दोनों ही समूहों में वह इसकी वकालत करता दिख रहा है।
नैटो की इस महीने हुई विल्निस (लिथुआनिया) बैठक से पहले ही फ्रांस अपने मित्र देशों को इसके लिए तैयार करने का काम शुरू कर चुका था।
इमैनुअल मैक्रों ने 31 मई को ही स्लोवाकिया की राजधानी बैटिस्लावा में कह दिया था कि ‘हमें मेंबरशिप की तरफ जाने वाला रास्ता अपनाने की जरूरत है।’ मैक्रों के इस बयान ने यूरोपीय देशों सहित अमेरिका को भी हैरान कर दिया था। कारण यह कि साल 2008 में फ्रांस और जर्मनी ने यूक्रेन की मेंबरशिप का रास्ता ब्लॉक कर दिया था।
दिलचस्प बात यह भी है कि चार साल पहले मैक्रों ने ‘द इकॉनमिस्ट’ पत्रिका से कहा था कि नैटो ‘ब्रेन डेथ’ से गुजर रहा है।
मैक्रों की दृष्टि में जिस नैटो की ‘ब्रेन डेथ’ हो चुकी थी, वह आज उन्हीं की नजर में यूरोप की रक्षात्मक दीवार निर्मित करने योग्य कैसे हो गया? मैक्रों को यूरोपियन यूनियन का सीमा विस्तार जियो-पॉलिटिक्स के लिए अनिवार्य क्यों लगने लगा? यह बात फ्रांस के यूरोपीय मामलों के मंत्री लॉरेंस बूने ने भी कही है कि हमारी जरूरत जियो पॉलिटिकल निर्माण की ओर बढ़ने की है। देखा जाए तो यह सही अर्थों में ‘स्ट्रक्चरल शिफ्ट’ है। आखिर इस शिफ्टिंग का मतलब क्या है और इसके पीछे की मंशा क्या है? क्या यह यूरोप का आकार बदलने की तैयारी का हिस्सा है? यदि हां, तो यूक्रेन की धरती पर चल रहे ‘वॉर गेम’ की भी निरपेक्ष समीक्षा होनी चाहिए, जिसे शायद अभिनेता से राजनेता बने यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की अब तक नहीं समझ पाए हैं।
रूस-यूक्रेन युद्ध के शुरुआती दौर में जेलेंस्की के व्यवहार से ऐसा लग रहा था कि नैटो रूस के खिलाफ उनकी लड़ाई में उनकी ताकत बनकर उभरेगा। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं।
जिस यूक्रेन को नैटो और यूरोपियन यूनियन में शामिल करने के लिए मैक्रों छटपटाते दिख रहे हैं, उसके राष्ट्रपति विल्निस में ऐसे अलग-थलग नजर आए कि लोगों ने उनके चित्र पर कॉमेंट करना शुरू कर दिया, ‘एक बच्चा जो मेले में खो गया है’ और यह कि जेलेंस्की ‘यूज एंड थ्रो’ स्ट्रैटिजी का शिकार हो गए हैं।
यदि ऐसा है भी तो उनके पास और रास्ता क्या है? यही ना कि जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दें। दूसरा रास्ता रूस से समझौता हो सकता है। वैसे पहली वाली स्थिति यूक्रेन की अर्थव्यवस्था को उस दलदल में पहुंचा देगी, जहां से निकलना मुश्किल होगा। बहरहाल, रूस-यूक्रेन को लेकर यह स्पष्ट करना जरूरी है कि यह केवल व्लादिमीर पूतिन की तानाशाही का परिणाम नहीं है। यह बड़ी ताकतों के ‘वॉर गेम’ का हिस्सा है। यदि रूस गलत है तो नैटो कैसे सही हो सकता है और वह यूक्रेन भी जो नव-नाजीवाद को वर्षों से हवा दे रहा है?
यूक्रेन ने भाषाई अतिवाद को भी सक्रिय किया जिसमें ‘राइट सेक्टर’, ‘स्वोबोदा’ (स्वतंत्रता) और ‘स्टेपान बांडेरा’ जैसे संगठन शामिल थे, जो रूस विरोधी और नाजी समर्थक रहे हैं। इनका मकसद था कि यूक्रेन और कुछ अन्य देशों में कहीं भी रूसियों को नहीं रहने देना है।
अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देश इन दक्षिणपंथी ताकतों को उसी तरह से समर्थन देते हुए दिख रहे हैं, जिस तरह से वे 1930 के दशक में जर्मन नाजीवाद, इटालियन फासीवाद और जापानी सैन्यवाद को गुप्त समर्थन दे रहे थे।
पावर प्ले का उदाहरण
वैसे भी अमेरिका या नैटो के नेतृत्व में पश्चिमी दुनिया को कुछ युद्धों की जरूरत पड़ती रहती है, चाहे वे ‘स्मॉल स्केल’ के हों या ‘लार्ज स्केल’ के। ये ताकत दिखाने और हथियारों के बाजार के विस्तार के मकसद से लड़े जाते हैं। यूक्रेन भी इसी का उदाहरण हो सकता है। इससे आसानी से समझा जा सकता है कि ओलाफ शोल्ज के ‘जि़टेनवेन्डे’ और फ्रांस के ‘टॉरनैंट हिस्टॉरिक’ (ऐतिहासिक मोड़) का निहितार्थ क्या होगा। कुल मिलाकर यूक्रेन ‘पावर प्ले’ का ऐसा जरिया बनता हुआ दिख रहा है, जिसे पश्चिमी शक्तियां ‘क्लिक ऐंड ब्राउज’ पैटर्न पर चलाना चाह रही हैं। विल्निस के जलसे में राष्ट्रपति जेलेंस्की की तस्वीरें इसी तरफ इशारा करती हैं।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स