अवध की गंगा-जमुनी तहजीब के कद्रदानों ने उसकी झोली में बेशुमार प्रशंसाएं डाल रखी हैं। इतनी मुक्तकंठ प्रशंसाएं कि किसी भी अन्य तहजीब को उससे ईर्ष्या होने लग जाए। लेकिन वक्त के साथ इस खुशकिस्मती से एक बदकिस्मती भी आ जुड़ी है। बदकिस्मती यह कि उसके एक हिस्से का इन प्रशंसाओं को अदब के साथ सिर झुकाकर यानी विनम्र स्वाभिमान के साथ स्वीकार करने का अभ्यास जाता रहा है। इसलिए वह फूलकर कुप्पा तो हुआ ही रहता है, खुद को अहमन्य होने से भी नहीं बचा पाता।
साफ कहें तो इस अहमन्यता ने उसमें इतना सुपीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स भर दिया है कि वह ‘हमचुनी दीगरे नेस्त’ (मुझ जैसा दूजा नहीं) से आगे जाना या देखना ही गवारा नहीं करता। भले ही उसकी (गंगाजमुनी) तहजीब के निरालेपन की इमारत को बुलंद रखने के लिए रेती-पानी, सुर्खी-चूना व ईंट-गिट्टी ढोने और रंग-रोगन, नक्काशी व संगतराशी करने वाले तक उसके ‘विक्टिम’ (पीड़ित) बनकर रह जाएं।
क्या आश्चर्य कि इन पीड़ितों का क्षोभ गाहेबगाहे कवियों की सर्जना का विषय भी बनता आया है। तभी तो युवा कवि अदनान कफील दरवेश अपनी ‘अब तो सब सही है’ शीर्षक कविता में जब लिखते हैं- ‘हमें भी यकीन आ ही गया अब/आना ही था एक दिन/कि कोई भाईचारा नहीं था कभी यहां/न कोई गंगा-जमुनी तहजीब थी/ये सब तो बुजुर्गों की कब्रों से उठती धूल थी/जो बैठ गई’, तो ‘हमचुनी दीगरे नेस्त’ के अलमबरदारों को कुछ देर तो अपना मुंह छिपाना ही पड़ता है।
भले ही उसके बाद वे और ढीठ हो जाएं और ढिठाईपूर्वक यही साबित करने लग जाएं कि चूंकि यह तहजीब भी ‘शाही’, ‘हुक्मी’ व ‘सामंती’ ही रही है, इसलिए दूसरी ‘शाही’, ‘हुक्मी’ व सामंती तहजीबों से अलग नहीं है। स्त्रियों, दलितों, पिछड़ों और कामगारों के हक-हकूक के प्रति अपनी सहज संवेदनाओं को सुरक्षित रखने का मामला हो, तब तो और भी नहीं।
अकारण नहीं कि हिंदी के वरिष्ठ कवि प्रकाश चंद्रायन अपने कविता-संग्रह ‘पददलित मातृभूमि की आत्मा’ की ‘गंगोजमन तहजीब’ शीर्षक कविता में सभ्यता समीक्षकों को संबोधित करते हुए उनसे यही सवाल पूछते हैं, ‘सच-सच बताएं/कोई शाही तहजीब मिली आपको/जिसकी बुलंदी में खूनी बुनियाद न हो?’ फिर खुद ही जवाब देते हैं, ‘खून से ही लिखी गईं हुक्मी सभ्यताएं/और लिखी जा रही हैं।’ ‘मस्तूल नहीं, पेंदे में दर्ज होता है (उनका) तड़पता सच/(उसे देखें तो) दिख जाएगा साझी विरासत का रिसता जिस्म। यह भी कि ‘कहां तक आह और कितनी दूर तक कराह है’, ‘शिखर पर गंगोजमन (तो) तल पर जुल्मोसितम’ क्यों है। यह भी कि उसके ‘गप के इतिहास में मिल्लत की मिसालें हैं, भूगोल में तो अपनी-अपनी जान के पड़े लाले हैं’। अन्यथा ऐसा क्यों होता कि हुजूरान तो खानदानी सफेदपोश और अवाम पुश्त-दर-पुश्त पांवपोश!
प्रकाश चंद्रायन यहीं नहीं रुकते, सभ्यता समीक्षकों को थोड़ी और ‘असुविधा’ में डालते हैं, ‘कहते हैं सन सत्तावन में उठी गंगोजमन की लहर/ फिर क्यों टूटा सन सैंतालीस तक टेम्स का कहर?/ आपोआप तो नहीं घुला तहजीब में बहुरंगा जहर।/कुछ पूछताछ कुछ छानबीन कुछ खोजखबर, जर्द पन्नों में, ढूहों-टीलों पर तो डालें पैनी नजर। इसे गंगोजमन कहें कि जमनोगंग। उनकी आंखें अब बेपानी गड्ढे हैं।/गड्ढों में तहजीब के ऐसे-ऐसे अवशेष हैं कि वक्त के रोंगटे खड़े हो जायें/दिशाएं भी सिहर जाएं।’
उनकी मानें तो ये सवाल उनके ही नहीं हैं, ‘पूछती हैं इस तहजीब के आख्यान से बाहर की गई नदियां (भी)/वे भी जो सुखा दी गईं-/कि क्या हम सभ्य नहीं।/कि हमने महाजीवन को नहीं पाला-पोसा/कि हमारी वत्सल गोद में नहीं हुआ सभ्यताओं का सृजन? मिल-जुल की बात करो हो तो फकत गंगा-जमुना ही क्यों/मिलते हैं अरब सागर-हिंद महासागर/ मिले हैं मैदान-पठार-पहाड़/मिल ही जाते हैं बागोबहार-गर्दोगुबार। जो नहीं मिलते, वे हैं ताज और तलवारें और इसीलिए गंगोजमन में कभी एक हांड़ी में न पकी सामूहिक खिचड़ी न खीर।
और अंत में सबसे मार्मिक प्रश्न, जिसका आरंभ में जिक्र कर आए हैं, ‘(इस तहजीब के लिए) किसने ढोया रेती-पानी, सुर्खी-चूना, ईंट-गिट्टी/किसने किया रंग-रोगन, नक्काशी-संगतराशी?’ और इसकी गाथाओं में इन सबका कहीं जिक्र क्यों नहीं है? ‘तहजीब के बुर्ज में किस तहखाने में कहां हैं स्त्रियां?/किस कोठे-अटारी कोने-अतरे में दबी हैं सिसकियां/गंगा और जमुना भी तो हैं स्त्रियां। जैसे पूछ रहीं नदियां, वैसे ही पूछ रहे खेत-खलिहान। /अशराफ-अभिजात की दिलजमई तो नहीं ये किस्सागोई/खून-पसीने की धुलाई तो नहीं ये गीत-गवनाई।/सफेद जाजम पर सुखासीनों के बोलवचन तो सुखदाई/ दुखदाई ही रहेगी हाशिये की बुक्काफाड़ रुलाई?’
प्रसंगवश, अवध के बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि इस सूबे का नाम सब-कुछ ‘औंधा’ (यानी उलटा) करके या कि ढक तोप और छिपछिपाकर कर रखने की इस अंचल की ‘परंपरा’ से निकला है। लेकिन अब नए वक्त की नई रोशनी में इन प्रश्नों को कब तक औंधा करके रखा जा सकता है? किस ‘परंपरा’ के पोषण के नाम पर?
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स