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DevBhoomi Insider Desk
• Wed, 13 Jul 2022 6:24 pm IST


श्रीलंका में कहां चूक हुई


टीवी पर श्रीलंका की तस्वीरें चल रही थीं। राष्ट्रपति आवास में धमाचौकड़ी मचाती, सड़कों पर उत्पात करती, प्रधानमंत्री का निजी आवास फूंकती भीड़ के विजुअल्स विस्मित कर रहे थे। इसी सबके बीच अचानक ट्विटर पर टिप्पणी पढ़ी किसी की, ‘पुलिस की अनुमति लेकर ही प्रोटेस्ट करें श्रीलंका के लोग, प्लीज।‘ आश्चर्य, चिंता और सहानुभूति की भावनाओं के बीच भी उस टिप्पणी में छिपे तीखे व्यंग्य ने हंसने को मजबूर कर दिया। सोचा, अगर सचमुच ऐसा हो कि वहां मौजूदा माहौल में कोई भीड़ पुलिस थाने पहुंचे यह अनुरोध लेकर कि सर, हम फलां जगह प्रदर्शन करना चाहते हैं, इजाजत दीजिए, तो क्या प्रतिक्रिया होगी थाना प्रभारी की?

मामला हंसी-मजाक का नहीं, पूरी गंभीरता से लोकतंत्र के इस सबसे बड़े सच को व्यवहार में प्रत्यक्ष घटित होते देखने का है कि पहले लोक है फिर तंत्र। शासन का यह पूरा तंत्र अपने कामकाज के लिए अंतिम रूप से लोक के आगे ही जिम्मेदार है। इसी लोक के एक हिस्से का समर्थन लेकर जो सत्ता में पहुंचते हैं, पूरा तंत्र उनके इशारे पर नाचने लगता है। फिर लोग भी यह बात भूल जाते हैं कि इस नाचते हुए तंत्र और उसे नचाती हुई सत्ता दोनों पर विवेक का अंकुश बनाए रखने का काम, किसी और का नहीं बल्कि उन्हीं का है। नतीजा यह कि सत्ता अगर कोई गलत फैसला करती है तो पुलिस उसे लोगों पर थोपती है और लोग खुद को लाचार महसूस करते हुए पांच साल में एक बार वोट देने की औपचारिकता बख्शे जाने के एहसान तले दबे रहते हैं। श्रीलंका में यही हुआ। वहां चुनी हुई सरकार ने गलत फैसले किए, जिसकी कीमत आम लोगों को चुकानी पड़ी। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार, कोरोना महामारी से पहले टैक्स में कटौती, महामारी के कारण टूरिज्म सेक्टर के बैठने और विदेशी मुद्रा बचाने के लिए अचानक केमिकल फर्टिलाइजर्स के इस्तेमाल पर रोक। इन गलत फैसलों के बीच शुरू हुई यूक्रेन युद्ध ने श्रीलंका को दिवालिया होने पर मजबूर कर दिया। लोग सड़क पर उतर आए और उनके विरोध की वजह से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री को कुर्सी छोड़नी पड़ी।

ट्विटर पर भले ही किसी ने पुलिस से अनुमति लेकर प्रदर्शन करने की बात लिखी हो, लेकिन पूरे श्रीलंका विवाद में वहां की पुलिस और आर्मी ने संवेदनशीलता दिखाई है। और जनता के विरोध की वजह से वहां नई अंतरिम राष्ट्रीय सरकार के बनने की सूरत बनी है। इसके साथ यह सवाल भी है कि वक्त रहते श्रीलंका में सत्ता पर बैठे नेताओं को अवाम की दिक्कतों का अहसास क्यों नहीं हुआ? और अगर उन्हें जनता की दिक्कतों का पता था तो समय रहते उसे दूर करने के लिए कदम क्यों नहीं उठाया गया? अगर इस दायित्व का निर्वाह किया गया होता तो वहां की स्थिति अलग होती। जनता और सरकार के बीच संवाद कभी खत्म नहीं होना चाहिए। यह संवाद भी लोकतंत्र का एक बुनियादी आधार है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स